एक तरफ पानी की किल्लत तो दूसरी तरफ पीएम मोदी के रोड शो में करीब एक लाख चालीस हजार लीटर पानी बर्बाद

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लोकसभा चुनाव की सरगर्मी  जोरों पर है। देश में नई सरकार के चयन की प्रक्रिया चरम पर है। यूं तो आम चुनाव आधा बीत चुका है,परन्तु चुनावी चर्चाओं और सभाओं में पर्यावरण, जल, स्वास्थ्य, प्रदूषण, और संसाधनों का जिक्र शायद ही सुनाई देता है। भले ही यह किसी भी तरह से राजनीतिक मुद्दा न बन सके परंतु आम जीवन में यह आज भी महत्वपूर्ण है।

          जल प्रकृति की अनुपम संपदा है। निःसंदेह हम अपने से न तो जल बना सकते हैं और न ही उसके बिना जीवन व्यतीत कर सकते हैं। आँकड़ों की मानें तो हमारे देश में दुनिया की लगभग 16 (सोलह) प्रतिशत आबादी निवास करती है लेकिन 4 (चार) प्रतिशत पानी ही उपलब्ध है। ऐसे में पानी की एक-एक बूँद हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

आश्चर्य है कि देश के सबसे गरीब जिलों में शामिल ओडिशा के सोनपुर की रैली को संबोधित करते हुए देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महानदी और जिले के जल संकट की बात कही। इसी प्रकार, उन्होंने झारखंड में जल जंगल और जमीन को याद किया, वहीं इनके संसदीय क्षेत्र उत्तर प्रदेश के वाराणसी में इनके नामांकन से एक दिन पहले आयोजित रोड शो में करीब एक लाख चालीस हजार लीटर पानी सिर्फ सड़कों को धोने में बर्बाद किए गए। इसके लिए वाराणसी नगर निगम के चालीस पानी टैंकरों और चार सौ मजदूरों को इस काम में लगाया गया। जबकि उतर प्रदेश के कई हिस्सों में आम लोग पानी की कमी झेल रहे हैं।वाराणसी नगर निगम की मानें तो वाराणसी के 70( सत्तर) प्रतिशत आबादी को पाईप लाईन से पानी मिलती है जबकि 30 (तीस ) प्रतिशत आबादी बोरबेल का सहारा लेती है।

उत्तर प्रदेश के ही बुंदेलखंड में पानी की कमी की एक बड़ी समस्या है। जहाँ एक ओर पानी की किल्लत झेल रहे आम लोगों को जल संरक्षण की नसीहत देते हुए कहा जाता है कि हम न तो पानी को व्यर्थ ही बर्बाद करें और न ही उसे दूषित करें वहीं दूसरी ओर हमारे देश में प्रधानमंत्री के रोड शो से पहले सड़कों को धोये जाने की नई परंपरा स्थापित की जा रही है। 

लोकतंत्र में इससे बढ़कर भद्दा मजाक और क्या होगी कि एक ओर ऐसी जनता जिनकी सुबह पानी के लिए सार्वजनिक नलों पर लंबी लाईनों में खड़े होने से शुरू होती हो और पूरा दिन पानी के लिए जुझते हुए गुजरता हो! पानी की तलाश में लंबी दूरियाँ तय करनी पड़ती हो ताकि पीने योग्य शुद्ध जल प्राप्त हो। वहीं हमारे राजनीतिज्ञों के आगमन पर उसी अमृत से रोड को धोया जाता हो।ऐसे राजनेताओं को जिन्हें जन समस्याओं से कोई सरोकार नहीं, भला उनका सत्ता में बने रहने का क्या औचित्य है? 

       तेजी से शहरीकरण की ओर अग्रसर हो रहे हमारे देश में अधिक सक्षम प्रबंधन और समुन्नत पेय जल आपूर्ति की नितांत आवश्यकता पड़ेगी। विडंबना है कि पीने के लायक जल की मात्रा कम होने के बाद भी इसका अंधाधुंध दोहन जारी है। सुविधा संपन्न राजनीतिज्ञों नौकरशाहों के लिए भले ही यह मुद्दा नहीं हो पर आमजनों को तो इसे गंभीरता से लेना होगा और उनके न चाहते हुए भी इसे चुनावी मुद्दा बनाने के लिए विवश करना ही होगा।    

मंजर आलम,
  (एम०ए०, बी०एड०)
नालंदा खुला विश्वविद्यालय, पटना

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और इनके आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं)


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