अन्तर्राष्ट्रीय संगीत दिवस पर अतिथि संपादक प्रसन्ना सिंह राठौर की कलम से

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प्रसन्ना सिंह राठौर
अतिथि संपादक

फिल्में समाज की आइना और गाने उसकी धुरी होती है, रचनाकारों को यह बात हमेशा जेहन में रखकर ही गानों का सृजन करना चाहिए। गानों के लगातार बदलते दौर व गिरते स्तर के बीच  अन्तर्राष्ट्रीय संगीत दिवस के बहाने गानों के अतीत में झांकते हुए वर्तमान को आंकने की जरूरत महसूस होती है।

भारतीय फिल्म जगत में जब गानों की शुरुआत हुई तो पहला गाना आया आलम आरा से ” दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, गर हो तू देने के काबिल” इस गाने ने जहां मानवता की तस्वीर को उकेरने का प्रयास किया, वहीं 1968 में आई फिल्म सरस्वती चन्द्र का गाना ” चन्दन सा बदन चंचल चितवन, धीरे से तेरा यह मुस्कुराना”  प्यार करने वालों के प्यार को अंगड़ाई लेने पर विवश कर देता है।  ऐसे गानों के साथ कभी कभी मेरे दिल में यह ख्याल आता है, कहीं दीप जले, कहीं दिल जैसे गाने कभी बड़ी संख्या में आते थे, जिसमे गानों के बोल में अर्थ होता, सन्देश छुपे होते और साथ में गानों की गरिमा भी थी।

ऐसे गानों का श्रंगार करते थे मजरूह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, गोपालदास नीरज, हसरत जयपुरी, शकील बदायूंनी जैसे नामचीन रचनाकार। लेकिन वो हिंदी फिल्मों का कोई अलग दौर था ।आज ऐसा कुछ भी नहीं है। अब गानों में अर्थ, सन्देश व गरिमा जैसे शब्दों की कोई जरूरत नहीं होती। शायद यही कारण है कि अब फिल्म में हीरो हिरोइन बेधड़क गाते हैं “होठ रसीले तेरे होठ रसीले, सरकाई लो खटिया जाड़ा लगे, वॉल्यूम कम कर पप्पा जग जाएगा” इन गानों को रूप देने वाले रचनाकारों के दिमाग में इसकी सार्थकता क्या है ये तो वो ही जाने। लेकिन किसी भी स्तर पर इनमें कोई संदेश या अर्थ कोसो दूर नजर नहीं आते।

बे अर्थी गानों के भरमार इस बात के प्रमाण हैं कि इस नकारात्मक बदलाव के खिलाफ कोई कारगर आवाज नहीं उठी, अगर उठी भी तो मुकाम से पहले ही शांत हो गई। लगभग आज से दो दशक पहले फिल्म मोहरा के गीत “तू चीज बड़ी है मस्त – मस्त” पर आपत्ति दर्ज कराते हुए राज्य सभा की एक महिला सांसद ने फिल्मी गीतों के गिरते स्तर के प्रति सदन को आगाह किया था। तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्री सी इब्राहिम सहित सदन के अनेकों सदस्यों ने उनकी चिंता को उचित बताया था। लेकिन भविष्य को ध्यान में रखकर कोई कारगर पहल नहीं करने के कारण गानों का स्तर लगातार गिरता चला जा रहा है।

आज गानों की पहचान अश्लीलता व फूहड़पन से होने लगी है। यहां यह प्रश्न है कि अब गीतकार समाज के प्रति अपने दायित्व से विमुख क्यों हो रहे हैं? तुझे घोड़ी किसने चढ़ाया भूतनी के, पप्पू कांट डांस साला जैसे गीत समाज व युवा पीढ़ी को क्या सन्देश प्रेषित करने की कोशिश कर रहे हैं? हिंदी फिल्मों से ज्यादा हालत गंभीर भोजपुरी फिल्मों की हो चली है। गाने फूहड़पन की हद को भी पार करने लगे हैं। खासकर युवा पीढ़ी जो फिल्मों व गानों में देखती है उसकी नकल भी करती है। जिसका फल है कि समाज छिन्न भिन्न होने लगा है, पवित्र रिश्ते नातों की गरिमा पहले सी नहीं रही है, क्योंकि फिल्में और गाने गलत प्रभाव छोड़ रहे हैं। अब भी समय है कि फिल्मकार व गीतकार इस वास्तविकता को समझें कि उनकी प्रस्तुति समाज में व्याप्त खामियों पर प्रकाश डालते हुए आमजन को सचेत करने की है। गानों से मनोरंजन हो लेकिन उसके अर्थ भी निकले जो बच्चों व युवाओं को मार्गदर्शन कर सके।अगर समय रहते गानों की इस दुर्दशा पर विराम नहीं लगाया गया तो इसके जो परिणाम होंगे उसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है।

एक दौर था जब भारतीय गीत व संगीत दूर-दूर तक प्रसिद्ध था अपनी मौलिकता के लिए, लेकिन  आलम यह है कि आज यह अपनी पहचान को भटक रहा है। गाने ऐसे हों जिसमे लोगों को अपनी बात, खुशी व गम की झलक नजर आए।पहले के गीतों में यह बातें थी, यही कारण है कि उस दौर के गीत आज भी अपने औचित्य को जिंदा रखे हुए  है। जब कहीं भी पुराने गीत बजते हैं तो लोग यूं ही जुड़ने लगते हैं। यह गुण आज के गानों में नजर नहीं आता। आज के गाने प्राय बरसाती मेंढ़क की तरह होते हैं जो कुछ समय तक चर्चा में तो होते हैं लेकिन फिर विलुप्त हो जाते हैं।

मौजूदा गीतकारों व रचनाकारों को यह समझ रखने की जरूरत है कि गीत के बोल दिल से निकलते हैं, ये खेतों व पेड़ों पर नहीं मिलते। शायद तभी चर्चित फिल्म अभिनेत्री शबाना आजमी के उस उवाच की साख जिंदा रहेगी की फिल्में समाज कि आइना होती है और गीत उसकी जान ।

“द रिपब्लिकन टाइम्स” परिवार की ओर से सभी संगीत साधकों व प्रेमियों को अन्तर्राष्ट्रीय संगीत दिवस की बधाई।


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