बिहार के सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की घोर कमी एक अहम मुद्दा, नौनेहलों का भविष्य खतरे में

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बिहार के सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की घोर कमी एक अहम मुद्दा है। जहाँ टीईटी व एस टीईटी उत्तीर्ण अभ्यर्थियों का एक बड़ा वर्ग अपनी शीघ्र बहाली को लेकर सड़कों पर संघर्षरत है तो वहीं प्रदेश के सरकारी विद्यालयों में कार्यरत शिक्षकों को ससमय वेतन नहीं मिलने से उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।

         बेरोजगारी एक विकराल समस्या है तो शिक्षित बेरोजगार युवा अपने कैरियर को लेकर चिंतित है। निःसंदेह रोजगार उपलब्ध कराना, शिक्षकों को ससमय वेतन देना और राज्य के नौनिहालों को बेहतर शिक्षा प्रदान कराना सरकार की अहम जिम्मेदारी है। चुनाव की इस गहमागहमी और नेताओं के ब्यानों के बीच यह सारे सवाल गौण हो रहे हैं। ऐसे में शिक्षकों व टीईटी, एस टीईटी उत्तीर्ण अभ्यर्थियों द्वारा अपनी मांगों को लेकर सरकार या राजनीतिक दलों पर दबाव बनाने के लिए सोशल मीडिया पर चुनाव में नोटा का बटन दबाने की बात कही जा रही है। सोशल मीडिया पर  जारी यह आह्वान कितना असरदार होगा यह तो समय ही बताएगा।

        वैसे यह धमकी महज एक ढोंग है, हकीकत में वोट डालते समय इन सब बातों से ईतर वे अपने जाति, धर्म और क्षेत्रीयता के आधार पर वोट डाल रहे हैं। अगर सचमुच में वह एकजुट होकर नोटा का बटन दबाने के लिए तैयार हो जाएं तो वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार की चूलें हिल जाएंगी। कई शिक्षित बेरोजगार युवाओं से बात करें, तो अचंभित रह जाएंगे । उनका मानना है कि वे भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए को अपना वोट केंद्र में सरकार बनाने के लिए दे रहे हैं न कि प्रदेश सरकार को ! वहीं कुछ लोग एनडीए के विरुद्ध महागठबंधन की ओर दिखे।

   एनडीए के विरुद्ध महागठबंधन को वोट देना तो समझ में आता है क्योंकि वह बिहार में सत्तारूढ़ एनडीए सरकार के खिलाफ है परंतु एनडीए का समर्थन समझ से पड़े है। 

 बिहार में टीईटी /एसटीईटी उत्तीर्ण अभ्यर्थियों को बहाल कर शिक्षकों की कमी को पूरा करना प्रदेश की सत्तारूढ़ एनडीए सरकार की जिम्मेवारी है। बिहार के नियोजित शिक्षकों के लिए “समान काम हेतु समान वेतन” का मुद्दा माननीय सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है और इस केस में बिहार की सत्तारूढ़ एनडीए सरकार ही शिक्षकों के विपक्ष में है । बिहार की बदहाल शिक्षा व्यवस्था के लिए भी प्रदेश की एनडीए सरकार ही जिम्मेदार मानी जाएगी । देशभर में बेरोजगारी के लिए केंद्र की सत्तारूढ़ एनडीए जिम्मेदार है। ऐसे में यदि कोई शिक्षित बेरोजगार या बिहार के नियोजित शिक्षक एनडीए को वोट देते हैं तो फिर सरकार के विरुद्ध धरना प्रदर्शन और हड़ताल करना बेमानी होगी। वह नोटा दबाकर भी अपनी नाराजगी नहीं जता सकते तो स्पष्ट है कि वह नोटा दबाने का हौव्वा खड़ा कर सरकार को डरा नहीं सकते। यही कारण है कि चुनावी प्रचार के दौरान भी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जी, भड़ी सभा में वित्त रहित शिक्षकों को फटकार लगाते सुने जा सकते हैं।

                लोकसभा चुनाव2019 के तीन चरणों का मतदान हो चूका है और नेताओं का भविष्य ईवीएम में कैद हो चुका है। शेष बचे चार चरणों में यदि संगठित होकर सत्तारूढ़ पार्टी को सबक न सिखाया गया तो यकीन जानिए बिहार की वर्तमान सरकार के सामने कोई संघर्ष टिक नहीं पाएगा और अपनी मांगों को लेकर अदालत के भरोसे वर्षों इंतजार करना होगा! यह किसी से छिपा हुआ नहीं है कि इंतजार की घड़ियाँ काफी लम्बी होती है।

मंजर आलम,
  (एम०ए०, बी०एड०)
नालंदा खुला विश्वविद्यालय, पटना

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और इनके आलेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं) 


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