वसंत पंचमी की वसंत को जिंदा बनाए रखने की तय हो जिम्मेदारी

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                                    सरस्वती पूजा पर राठौर की कलम…… ✍️ से
रस्वती पूजा शब्द सुनते ही तस्वीर बनती है, पढ़ने लिखने वाले छात्र छात्राओं की आस्था से सरोबार गतिविधि की जिसमें वसंत पंचमी के दिन पढ़ाई से जुड़े सामानों को व्यवस्थित, साफ सफाई को अंजाम दे स्नान कर विधिवत पूजन की, उसमें पुजा से जुड़े गानों का बजना बीच बीच में जय मां शारदे और रुक-रुक कर बजती घंटी का अलग ही महत्व हैं। वीणा वादिनी सरस्वती की तस्वीर अथवा मूर्ति पर टकटकी लगाये पूजा संपन्न होने और फिर प्रसाद मिलने का इंतजार अवर्णीय होता है। लेकिन वक्त के साथ यह बदलता चला गया। बदलते दौर के साथ अब नई और चिंताजनक परिभाषा स्थापित हो रही है, अश्लीलता, हठधर्मिता, द्रिवर्थी गानों की डीजे पर धूम किसी दूसरी ही आस्था और पूजा का रूप ले लेती है। यह पूजा मूल रूपेण शिक्षा से जुड़े छात्र और शिक्षकों का वो पर्व है जो गुजरे दौर में विशेषकर शिक्षा से जुड़े परिसर में ही इसका आयोजन प्रमुखता से होता भी था लेकिन अब हालात सीधे विपरीत परिस्थितियों वाली हो चली है। शिक्षण संस्थानों विशेष कर उच्च शिक्षण केंद्र में अब पूजा विरले ही होती है लेकिन हां उसके बजाय अन्य स्तरों पर आयोजन की संख्या बढ़ी है लेकिन आयोजन औचित्य से कोसो दूर सिर्फ दिवर्थी गानों, मनोरंजन का केंद्रबिंदु बन कर रह जाता है आस्था दूर दूर तक नजर नहीं आती।
प्रकृति प्रदत चीजों से होने वाली पूजा अब बाजार के दायरे में : विद्या की देवी यां यूं कहें सर्वश्रेष्ठ केन्द्रबिंदु सरस्वती की पूजा जो कभी पूरी तरह प्रकृति प्रदत होती ही नहीं थी बल्कि प्रक्रिति के सौंदर्य की पर्याय भी बनती थी वो अब आहिस्ते-आहिस्ते बाजारवाद की चपेट में आ चुकी है । बसंत पंचमी के आते ही बाजार पूरी तरह पूजा के सामानों से भर जाता है वहीं हर किसी का सजावट के मामले में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ की तो बात ही अलग है जिससे यह पर्व पहले जैसे सामान्य खर्च में निपटने के बजाय बड़े खर्च का भी रूप ले चुका है।
पहले के समय में पुजा सादगी और आस्था की प्रतीक और दर्पण होती थी लेकिन वर्तमान स्थिति सर्वथा भिन्न है पहले जहां उपलब्ध संसाधन केला पेड़, फूल, पत्तियां संग सीमित कागजी सामग्री से सजावट होती थी वहीं केले पत्ते पर कच्चा चावल, केला, गुड़, शकरकंद आदि से बने प्रसाद सरस्वती पूजा का भरपूर आनंद का अहसास कराते थे। लेकिन अब सजावट और प्रसाद के नाम बहुत कुछ हो जाता है।
मूर्ति विसर्जन में आस्था की जगह बढ़ रहा आडम्बर : सरस्वती पूजा की शुरुआत में जहां एक ओर पहले दिन आस्था से सरोबार हो पूजा अर्चना होती थी वहीं दूसरे दिन नम आंखों से मूर्ति विसर्जन की परंपरा रही है लेकिन अब कुछ इने गिने जगहों को छोड़ मूर्ति विसर्जन नम आंखों से विदाई की जगह नशे की हालत में हिंदी, भोजपुरी अश्लील गानों, डीजे की धुन बेतरतीब डांस में सिमटने लगी है जिससे सामाजिक बंधनों के धागों पर भी चोट पड़ने लगी है जो बहुत दुखद है।
पूजा के औचित्य को बरकरार रखने की जरूरत
सरस्वती पूजा पूर्ण रूप से छात्र और शिक्षकों के आस्था का पर्व है। यह अपने मूल रूप में सादगी और आस्था से मने यही इसकी सार्थकता भी होगी। यह सामाजिक दायित्व भी है कि सरस्वती पूजा जैसे पावन पर्व को दूषित होने से बचाया जाए अन्यथा भारतीय सांस्कृतिक विरासत की अहम कड़ी यह पूजा अपनी मूल पहचान से कहीं दूर न हो जाए। प्रसिद्ध आईपीएस ध्रुव गुप्त ने तो लिखा भी है कि सच्चाई यह है कि वसंत अब किताबों में ही रह गया है। इसके आने की सूचना भी हमें पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया से मिलती है। हमारे जीवन में वसंत तभी लौटेगा जब प्रकृति अपने असली स्वरुप में लौटेगी। जब पृथ्वी एक बार फिर वृक्षों की हरीतिमा से भर जाएगी। जब हमारी नदियां निर्मल और अविरल होंगी। जब गांवों को उनके तालाब लौटा दिए जाएंगे। जब घर-आंगन और वन-उपवन एक बार फिर से पक्षियों के प्रणय-गीतों से गुलजार होंगे। जब प्रेम की कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति के प्रति हमारा कृत्रिम प्रतिरोध रुकेगा।कृत्रिम की जगह प्राक्रतिक शुद्धता और सौंदर्यता का संगम ही वसंत पंचमी है। सबों को वसंत पंचमी, सरस्वती पूजा की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं और अपील भी की सब मिलकर तय करें की वसंत पंचमी के वसंत को बनाए रखने की जिम्मेदारी सबकी है क्योंकि यह हमारी सांस्कृतिक विरासत की बड़ी खूबसूरत कड़ी है।

हर्ष वर्धन सिंह राठौर
संपादक, युवा सृजन
शोधार्थी, इतिहास BNMU

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