मुहर्रम इस्लामी वर्ष (हिजरी साल)का पहला महीना है। इस माह को उत्कृष्ट स्थान प्राप्त है। मुहर्रम की दसवीं तारीख को यौम-ए-आशुरह कहा जाता है। इस्लामी इतिहास में इस रोज कई महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटित हुई हैं जिससे इस दिवस की महत्ता बढ़ जाती है।
कुछ स्मरणीय तथ्य संक्षिप्त में इस प्रकार हैं….
★ मुहर्रम की दसवीं तारीख को हजरत आदम (अलैहिस्सलाम) की दुआ अल्लाह तआला ने स्वीकार किया और दुनिया को आबाद करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित किया गया। आप (अलैहिस्सलाम)इस्लाम के प्रथम संदेष्टा हैं ।
★ इसी दिन हजरत यूनुस(अलैहिस्सलाम) को मछली के पेट से निजात मिली।
★ इसी दिन हजरत नूह (अलैहिस्सलाम) की कीश्ती (नाव) जूदी नामक पहाड़ के किनारे लगी और उसमें बैठे हुए लोगों (अनुयायियों) ने धैर्य का साँस लिया।
★ हजरत मुसा (अलैहिस्सलाम)की कौम यहूद को फिरऔन जैसे क्रुर शासक से मुक्ति मिली और फिरऔन को लश्कर सहित दरिया-ए-नील में डूबने पर मजबूर होना पड़ा।
उपर्युक्त ऐतिहासिक घटनाक्रमों की महत्ता की दृष्टिकोण से यह माह हम सबों के लिए खुशियों का पल है। निःसंदेह उपर्युक्त सभी नबी अल्लाह का संदेश पहूँचाने और हमें एकेश्वरवाद की ओर पलटने का संदेश देने वाले हैं।
अजब संयोग है कि दस मुहर्रम को ही इस्लामी इतिहास में एक हृदय विदारक घटना भी घटी जिसका हमसबों को दुःख है। यजीद के हाथों शरियत के वसूलों (इस्लामी कानून) को पामाल होते देख अल्लाह के आखिरी पैगम्बर हजरत मुहम्मद (सल्ल०)के प्यारे नवासे हजरत हुसैन (रजि०) निहत्थे घर से निकल पड़े । कर्बला के तपते रेगिस्तान में यजीदी फौज ने उन्हें घेर लिया और उन्हें यजीद के शासन को स्वीकार करने पर विवश किया, किंतु सत्य को स्थापित करने हेतु प्राण त्यागना स्वीकार किया, परंतु सर झुकाना स्वीकार नहीं किया । दुश्मन ने क्रुरता की हदें पार कर दी, मासुम बच्चे कर्बला के तपते रेगिस्तान में भूख और प्यास से तड़पते रहे, मगर आपकी दृढ़निश्चय में कोई कमी न आई।आपने अपने खानदान और जाँनिशारों के साथ हक के लिए शहादत का जाम पी लिया।
इस्लामी इतिहास की यह घटना सदैव याद दिलाती है कि हक के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी दी जा सकती हैं, परंतु सत्य के लिए मुख नहीं मोड़ा जा सकता। हजरत मुहम्मद (सल्ल०)के चहेते नवासे और इस्लाम के अनुयायियों की इस शहादत पर लोगों में गम तो है परंतु इस्लाम शहीदों की शहादत पर मातम मनाने की सीख नहीं देता है।
बकौल शायर अल्लामा इकबाल :
कह दो गम ए हुसैन मनाने वालों से
मोमिन किसी शोहदा का मातम नहीं करते।
है ईश्क अपनी जान से ज्यादा आले रसूल(सल्ल०)से,
यूँ सरेआम हम उनका तमाशा नहीं करते।
रोएँ वह जो मुनकिर हैं शहादत हुसैन (रजि०)के,
हम जिंदा जावेद का मातम नहीं करते।
सबसे बड़ी विडम्बना है कि मुसलमानों का बड़ा वर्ग अपनी अज्ञानता और हठधर्मिता की वजह से मुहर्रम के वास्तविक संदेशों को अपने जीवन में न उतारकर एक नए रस्म रिवाज को जन्म दे दिया है जिसका इस्लाम से कोई संबंध नहीं है। मुहर्रम की आड़ में हुल्लड़बाजी सभ्य समाज में कदापि स्वीकार्य नहीं है। इस्लाम हमेशा शांति का संदेश देती है जबकि इसके उल्ट दस दिनों तक जमकर ढोल नगाड़े बजाए जाते हैं।इसके अलावा कई ऐसे रस्म अदा किए जाते हैं जिसका इस्लाम से कोई संबंध नहीं। हालांकि कोविड-19 महामारी से त्रस्त इस संकटकाल में ऐसे आयोजन नहीं होंगे जो एक सराहनीय पहल है।
आवश्यकता है कि सद्भाव व सौहार्दपूर्ण वातावरण में हमसब अपने आचरण से इस्लाम के सही संदेश से देशवासियों को अवगत कराएँ ।