मीडिया इंडस्ट्री के लिए अकाल मौत लेकर आया है कोरोना महामारी   

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अनूप ना. सिंह
स्थानीय संपादक

मीडिया इंडस्ट्री के लिए कोरोना महामारी सच में अकाल मौत लेकर आया है। लॉकडाउन में आप टीवी के सामने बैठकर होम मेड आलू टिक्की-समोसे, चाट और जिलेबी के साथ कोरोना को मुसलमान बनाने के मजे लेते रहे और इस बीच उसी न्यूजरूम के दर्जनों कर्मचारियों को एक साथ नौकरी से हटाए जाने का आदेश जारी हो जाता है। आप के समोसे का स्वाद बेमजा तो नहीं होगा, मगर कई जिंदगियां तो बिना महामारी के एक साथ मार दी गई हैं उनका क्या?  तिल-तिल कर मरेंगे या फिर एक साथ बेमौत मार दिए जाएंगे।

नियो लिबरल इकोनोमी और ग्लोबलाइजेशन का बूम इसी तरह बूमरैंग होता है, भड़ाम से फूटता है। बड़े मीडिया हाउस से लेकर छोटी कंपनिया और स्टार्ट अप भी इस महामारी का शिकार होते जा रही है। पहले जानकार यह समझते थे कि सिर्फ अखबार छापने वाली कंपनियों का भट्टा बैठेगा, मगर अब तो डिजिटल न्यूज कंपनिया भी अपना धंधा बंद कर रही है। न्यूज नेशन चैनल ने अपने अंग्रेजी डिजिटल वर्टिकल को बिना कोई नोटिस बंद कर दिया। इस डिजिटल वर्टिकल में काम कर रहे एक इंप्लाई की पत्नी और बच्ची तो वेंटीलेंटर पर जिंदगी से जंग लड़ रही है।

कई बड़ी कंपनिया सैलरी कट कर रही है तो कई कंपनियां अपने वर्टिकल्स और एडिशन को बंद कर रही है। टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप ने अपने संडे मैग्जीन के पूरे टीम को निकाल बाहर कर इसे बंद करने का फैसला लिया है। जाने-माने मराठी पत्रकार निखिल वागले ने ट्वीट किया है कि टाइम्स ऑफ इंडिया अपने मराठी एडिशन को भी बंद करने जा रही है। इंडियन एक्सप्रेस और बिजनेस स्टैंडर्ड के एचआर ने सैलरी कट का सर्कुलर स्टाफ को मेल कर दिया है। स्टार्ट अप से कॉरपोरेट बन रही एक डिजिटल कंपनी क्विंट ने भी लिव विद आउट पे पर जाने का फरमान जारी किया है। अखबार उद्योग का अभी तो भट्टा बैठा ही हुआ है।

मीडिया इंडस्ट्री अभी पूरी तरह से तबाही के कगार पर है, सिर्फ टीवी न्यूज चैनल को छोड़कर। मगर वो भी ज्यादा दिन तक सांस नहीं ले पाएंगे, क्योंकि जिस सरकार और बाजार के पैसे के दम पर चमक-दमक दिख रहा है, वो बाजार ही धाराशायी होने जा रहा है, या कहें तो हो चुका है। विज्ञापन का बाजार. सरकार अब जनता के लिए पैसे लुटाएगी न कि मीडिया के लिए,  क्योंकि सरकार को भी पता है अभी कुछ दिनों के लिए ही स्थायी पूंजीवादी सरकार को भी अपना एक सुंदर समाजवादी चेहरा बना कर रखना ही होगा, नहीं तो सरकार के साख पर ही बट्टा लग जाएगा। ऐसा नहीं है कि मीडिया कंपनिया (सरकार के वफादार) को अचानक से सरकार पैसा देना बंद कर देंगी, मगर उनके कोटे में धीरे-धीरे कमी आ जाएगी। इकोनॉमी ही जब ध्वस्त हो गई है तो कौलेटरल डैमेज तो मीडिया को भी उठाना ही होगा।

नियो लिबरल इकोनोमी ने मीडिया इंडस्ट्री को सबसे ज्यादा फायदा पहुंचाया। बड़े-बड़े लाला धनकुबेर बन गए, उन्हें इस बात का बिल्कुल नहीं परवाह है कि उनके कर्मचारियों को सम्मानित जिंदगी जीने का अधिकार है और बतौर मालिक उसे उनकी सम्मान का रक्षा करना चाहिए। इसकी बड़ी वजह है मीडिया इंडस्ट्री में ट्रेड यूनियन का अभाव। मालिक तो कभी चाहेगा ही नहीं कि ट्रेड यूनियन जैसी कोई प्रेशर ग्रुप बने, मगर अफसोस तो ये है कि मीडिया में काम करने वाले बड़े-बड़े संपादक और सैलरी के मिडिल बैक्रेट में काम करने वाले कर्मचारी भी हमेशा मालिक की चाकरी को ही वेतन और भत्ते की बढ़ोतरी के लिए जरूरी मानते रहे। उनके इस संगठित बेईमानी का खामियाजा हमेशा छोटे कामगारों को ही उठाना पड़ा, कभी नौकरी की बलि देकर तो कभी छंटनी और कटौती के नाम पर त्याग और बलिदान की मिसाल कायम कर। मीडिया इंडस्ट्री में ट्रेड यूनियन नहीं बना तो इसके सबसे बड़े कसूरवार हैं बड़े-बड़े संपादक और ठीक उसके नीचे काम कर रहे सैलरी के मिडिल ब्रैकेट में काम करने वाले डेस्क के बॉस और इंचार्ज। वैसे जहां था भी ट्रेड यूनियन वहां भी अब नाकाम ही है। कल-कारखाने, खादान समेत कई इंडस्ट्री दोनों संगठित और असंगठित सभी जगह ट्रेड यूनियन को सरकार और मालिकों ने मिलकर कमजोर कर दिया है।

हमारे समय के जाने माने पब्लिक इंटलेक्चुअल प्रकाश के रे कहते हैं कि साठ के दशक के आखिरी सालों में बकायदा सरकारी संरक्षण में कुछ गिरोहों का गठन कर ट्रेड यूनियन आंदोलन पर हमले किए गए और कामगारों के संगठन को जगह जगह कमजोर किया गया। हिंसा और हत्या का सिलसिला भी चला। कृष्णा देसाई और शंकर गुहा नियोगी जैसे मजदूर नेताओं की हत्या हुई। मालिकों ने अपने पैसे लगाकर फर्जी मजदूर संगठन बनाए और मजदूर नेताओं को हरसंभव तरीके से भ्रष्ट करने के उपाय कर ट्रेड यूनियन को तबाह किया गया।

बहरहाल उन्होंने और भी कई सवाल उठाए हैं। सबसे अहम है कलेक्टिव बार्गेनिंग का। कलेक्टिव बार्गेनिंग ट्रेड यूनियन का अहम हथियार होता था, ब्रह्मास्त्र की तरह। मालिक/मैनेजमेंट और कामगारों के बीच इसी हथियार के तहत वेतन वृद्धि, भत्ते और सामाजिक सुरक्षा और अन्य अधिकारों के लिए समझौते होते थे। मगर इस हथियार की ताकत को कारपोरेट और नियो लिबरल इकोनॉमी ने भोथर कर दिया है, और इसे भोथर करने में लोकतंत्र के सभी पाए बराबर के भागीदार हैं।

यानि,  न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी।


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