कभी देश के झंडे पर रह चुके और मिथिला के घर घर रहने वाला चरखा आज मिज्यूम की बस्तु बनकर मात्र रह गई है । मिथिला के नन्हें बच्चे भी ‘च‘ से चरखा बदले चश्मा और ‘स‘ से सूत के बदले संतरा को आसानी से समझते हैं।कभी घर घर मौजूद रहने वाला चरखा और मधुबनी जिले में ग्रामोद्योग के रूप में पहचान दिलाने वाली मधुबनी खादी भंडार आज इस हाइटेक युग में अपना पहचान ढ़ूढ़ने पर मजबूर है ।
यह खादी ग्रामोद्योग ‘मधुबनी ‘को राष्ट्रीय ही नहीं वरन विश्व स्तरीय पहचान दिला चुकी है पर अद्योगिकीकरण एवं प्रद्योगिकी के इस होड़ में मधुबनी खादी भंडार का अस्तित्व खत्म हो चुका है । कभी मिथिला के इस क्षेत्र में बेरोजगार, असहाय, नि:शक्त, महिला -पुरूष के लिए दैनिक रोजी रोटी का माध्यम था । अपनी समय और आवश्यकता के अनुसार चरखे से सूत बनाकर पैसा का उपार्जन कर पाती थीं। घर में काम करने वाली गृहिणी इस उद्योग से जुड़कर बचे दोपहर के समय में खासकर इस कार्य को कर परिवार को सबल करती थीं। महिलाएं आवश्यकता अनुसार खादी भंडार से रूई लेकर सूत बनाकर खादी भंडार को जमा करती थी जहां इस बनाए गए सूत का ग्रेडिंग तय कर इस संस्थान द्वारा पारिश्रमिक के तौर पर पैसा दिया जाता था । फिर इस सूत से इसी संस्थान के हस्तकर्घा, बुनाई, धोवाई, रंगाई, छपाई, सिलाई विभाग द्वारा धोती, कुर्ता, चादर, बंडी दोपटा, कोट, टोपी, झोला, बोड़ा आदि बनती थी।
हर विभाग में औसतन प्रत्यक्ष रूप से 10-12 महिला -पुरूष को रोजगार था तो अप्रत्यक्ष रूप से जिले के हजारों लोगों के रोजगार का साधन था । गर्म -ठंड दोनों ऋतु में अनुकूल होने के कारण इससे उत्पादित वस्त्र की खपत मिथिला के अलावे देश -विदेश स्तर पर था । गांधी -टोपी, तिरंगा झंडा, पैजामा, कुर्ता की विक्री राष्ट्रीय पर्व स्वतंत्रता गणतंत्रता दिवस ऐसे मौके पर काफी था वहीं उत्पादित जनउ की खपत तो जनउ सहित मिथिला के सांस्कृतिक अवसर पर हो जाती थी ।
उस समय के मशीन के द्वारा उत्पादित वस्त्रों पर मधुबनी पेंटिंग सहित अन्य चित्र को छापा जाता था जो मधुबनी चित्रकला के प्रसार का अनूठा माध्यम था । जानकारी के अनुसार ऐसे मशीन बंद पड़े कई संस्थानों के कमरों में जीर्ण शीर्ण अवस्था में है जो मात्र अब मिज्यूमय के ही काम आ सकती है। रोजगार और महिला स्वालंबन के ख्याल से यह उद्योग काफी महत्त्वपूर्ण था । समाज के बिधवाओं का एक निश्चित रोजगार था । इसके अलावे एक टोला की महिलाएं एक साथ बैठकर रूइ बिनते ,सूत कातते समय, अपना सुख -दुख साझा के साथ सामाजिक बातों की चर्चा करती थीं जहां उस समय महिलाएं सिर्फ समाजिक त्योहारों पर ही दूसरे के यहां जाने का मौका मिलता था । तो वहीं घर के अलावे खादी भंडार ही एक मात्र संस्थान थी जहां महिलाएं घुंघट से पूरा सिर नहीं ढ़कती थी इस समय को पर्दा प्रथा से निजात की शुरुआत माना जा सकता है।
इसके अलावे जिनके घर शादी ,जनउ ऐसे आर्थिक दबाब वाला कार्य होने वाला होता था ऐसी परिवार के महिलाओं को लोन या मदद स्वरूप ज्यादा रूई देती थी ताकि ज्यादा सूत बनाकर आने वाले व्यय के लिए उपार्जन जल्द कर सकें।औसतन 5-7 घंटे चरखे चलाने वाली महिलाएं सत्तर -अस्सी के दशक में 800रू से 1500 रू के बीच आय कर लेती थी । बाद में खादी भंडार को वृहत् किया जाने के क्रम में साबुन उद्योग ,सरसों तेल पेड़ने का मशीन, मधुमक्खी पालन,शुद्ध मधु की खरीद विक्री ऐसे योजना को जोड़कर बढ़ावा दिया जाने लगा ।स्थानीय स्तर पर बनाए जाने वाला चरखा को खादी भंडार खरीदकर देश विदेश में विक्री करती थी जो उस समय खादी भंडार का प्रमुख स्र्तोत था ।असहाय महिलाएं को लोन के रूप में चरखे दी जाती थी जिसकी कीमत वैसी महिलाएं चरखे की कीमत के बराबर सूत बनाकर चुकाती थी ।
अस्सी दशक से पूर्व विद्यालय के विद्यार्थियों को भी विद्यालय या घर (रविवार)सूत काटना अनिवार्य था जिस सूत को बेचकर विद्यालय संचालन की ब्यबस्था की जाती थी । विद्यालय में होने वाली परीक्षा के एक विषय के रूप में काटे गए सूत के ग्रेडिंग पर अंक दी जाती थी ।
उन दिनों मधुबनी, दरभंगा,सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, पूर्णिया, वैशाली, मधेपुरा सहित सम्पूर्ण मिथिला में यह एक प्रसिद्ध एवं उपयोगी ग्रामोद्योग के रूप में विकसित था । मधुबनी के बेनीपट्टी, खुटौना, मधेपुर, खजौली, सिमरी -विस्फी, मधवापुर, फुलपरास, लोकहा, लौकही, जयनगर, रहिका प्रखंड के विभिन्न गांव में खादी भंडार का केंद्र था।
मधुबनी में मुख्य केंद्र था जिसकी बिल्डिंग जीर्ण शीर्ण त्यक्त अवस्था में आज भी है । सिर्फ बेनीपट्टी प्रखंड के बेनीपट्टी, बसैठ-रानीपुर, धकजरी ,चतरा, आदि के ई स्थानों पर खादी भंडार थे । कई जगह पर आज भी खंडहर भवन हैं तो कई जगहों पर भवन की एक एक ईंट गायब कर भू माफिया द्वारा जमीन बेच दी गई है या बेचने की प्रक्रिया जारी है ।
समाजिक कार्यकर्ता ई विनोद शंकर झा इस मुद्दे को जोरदार ढंग से उठाते हुए कहते हैं कि सरकार खादी भंडार के भूमि सहित संरक्षण कर खादी ग्रामोद्योग को आधुनिक तरीके से विकसित किया जाए वहीं मिथिला के लोग पुनः खादी वस्त्र को दैनिक जीवन में अपनाकर इसे सशक्त करें ।तभी तो देश के प्रधानमंत्री को मन की बात में देशवासियों से एक दिन खादी वस्त्र उपयोग करने की अपील करनी पड़ी ।