कीर्ति बाबू का नाम सुनते ही जेहन में बरबस तस्वीर बनने लगती है एक ऐसे फक्कड़ संत की जिनकी पूरी जिंदगी समाज को बनाने में कटी। शिक्षा जगत के विश्वकर्मा के नाम से चर्चित कीर्ति नारायण मंडल का जन्म 1916 में 18 मार्च मनहरा सुखासन में हुआ। दयावती देवी व लालाजी के पौत्र व प्रभावती देवी एवम् ठाकुर प्रसाद के तीसरे पुत्र कीर्ति नारायण यूं तो जमींदार परिवार से थे लेकिन उनकी जीवन शैली बिल्कुल सामान्य थी।
वहीं दूसरी ओर उनकी सोच दूरदर्शी भी।बाल्यकाल की शिक्षा ठाकुर प्रसाद व प्रभावती देवी के लाडले कीर्ति नारायण ने मनहरा से और प्राथमिक शिक्षा शिवनंदन प्रसाद मंडल +2 से नवमी तक पाई। लेकिन इसी दौर में यह उनका ध्यान धीरे – धीरे खोज की ओर आकर्षित होने लगे, शायद यही कारण रहा होगा कि पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर ज्ञान व शांति की खोज में वो भ्रमण पर निकल गए। उन्नीस साल की उम्र में गांव में ही सात वीघा जमीन दान देकर ठाकुरबाड़ी का निर्माण कराया और छोटे भाई कृष्ण प्रसाद को पुजारी बना दिया। जिले में उच्च शिक्षा के हालात उन्हें परेशान कर देता क्योंकि इसके लिए यहां व्यवस्था नहीं थी, लोगों को दूर दरभंगा या भागलपुर जाना पड़ता था। बस फिर क्या था मधेपुरा को उच्च शिक्षा का केंद्र बनाने के लिए उन्होंने पहल शुरू करते हुए पिता से जमीन की मांग की लेकिन पिता राजी नहीं थे। फिर क्या था इरादों के पक्के कीर्ति राष्ट्रीय छात्रावास में भूख हड़ताल पर बैठ गए। बेटे की जिद देख मां प्रभावती ने पहल करते हुए ठाकुर प्रसाद से मांग मान जाने की मिन्नत की। ठाकुर प्रसाद मान गए और 54 एकड़ जमीन कॉलेज को दान दी। इस तरह शुरू हुआ टीपी कॉलेज के स्थापना की पहल की कड़ी।
आगे चलकर यही टी पी कॉलेज बीएनएमयू के स्थापना का आधार ही नहीं बना बल्कि आज भी इस कॉलेज को विश्वविद्यालय का आइना कहा जाता है। इसके बाद उन्होंने उच्च शिक्षा को और आसान बनाने के लिए शुरू किया हर क्षेत्रों में कॉलेजों की स्थापना का भागीरथी प्रयास। कीर्ति बाबू के अटल और अडिग सोच का ही फल था कि पग – पग पर विरोध व सहयोग के बीच कोसी और सीमांचल में डेढ़ दर्जन शिक्षण संस्थानों के स्थापना कर एक नया और शायद अटूट अध्याय भी लिखा, जिसके लिए आने वाली हर पीढ़ी उन्हें सजदा करेगी उनके प्रयास का ही फल है की आज यहां के बच्चे की पहुंच से परे कहे जाने वाले उच्च शिक्षा को पूरा करने का सफल सपना साकार कर पा रहे हैं। यहां यह कहना गलत न होगा कि कीर्ति बाबू के कर्म पताका निरंतर लहरा रहा है। जिसकी अटूट गूंज आज भी सुनाई पड़ती है। समाज के लिए उनके त्याग हमेशा भटकती युवा पीढ़ी को उसके कर्म का ज्ञान कराएगी। उनके कर्म का ही फल है कि बिहार के मुख्यमंत्री रहे दरोगा प्रसाद व जगन्नाथ मिश्र ने क्रमश साबरमती के संत व महान तपस्वी, तत्कालीन लोकसभा स्पीकर बलराम जाखड़ ने कोसी का मालवीय कह कर उनका सम्मान किया। आम आवाम ने समाज के प्रति समर्पण और त्याग के पर्याय कीर्ति बाबू को कोसी के शिक्षा दधीचि, विश्वकर्मा, विद्या मन्दिर का पुजारी, विचारधारा, सहित अनगिनत नामों से सम्मान दिया ।
उनकी शताब्दी जयंती पर शिव राजेश्वरी युवा सृजन क्लब और इप्टा द्वारा कई कार्यक्रम किए गए। क्लब लगातार कई वर्षों से उनकी जयंती व पुण्यतिथि मनाता आ रहा है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं । जरूरत है उनके जीवन चरित्र को आम जनमानस तक ले जाने की जिससे वर्तमान व भावी पीढ़ी अपने इतिहास पर अभिमान कर मजबूत भविष्य की ओर कूच करे। महामना कीर्ति बाबू ने यद्यपि सात मार्च 1997 को दुनिया से विदा ली तथापि उनके त्याग और कार्य उनके द्वारा स्थापित शिक्षण संस्थानों से निकल रहे प्रतिभाओं के उनके होने के अकाट्य प्रमाण देते हैं।
उनकी जयंती पर“द रिपब्लिकन टाइम्स”परिवार की ओर से कोटि कोटि नमन🙏