कभी साधु हाथी और पशु पक्षियों के मेले के रूप में दुनिया में था विख्यात अब थियेटरों के कारण जुटती है भीड़

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अनूप ना. सिंह
स्थानीय संपादक

कार्तिक पूर्णिमा के दिन से एक माह तक चलने वाला विश्व विख्यात हरिहर क्षेत्र (सोनपुर मेला )अब अपने अस्तित्व की जद्दोजहद की लड़ाई लड़ रहा है गंगा गंडक के संगम पर हरिहर नाथ बाबा को जल अर्पण करने के साथ इस मेले की शुरुआत होती है। मेला कब से लगता है इसका तो कोई प्रमाण नहीं है।

जानकार बताते हैं कि आजादी के पहले से ही इस मेले का अस्तित्व रहा है। बिहार की राजधानी पटना से महज 15 किलोमीटर की दूरी पर छपरा जिले के सोनपुर में यह मेला लगता है। हाथियों के मेले के रूप में पूरे विश्व में मेले की पहचान थी। ऐतिहासिक गजग्राह युद्ध की भूमि सोनपुर में विश्व प्रसिद्ध सोनपुर मेला अब पशु मेला की जगह थियेटर मेला बन गया है। 2003 में पशु-पक्षियों की बिक्री पर लगी रोक के बाद साल दर साल मेले की रौनक उजड़ती चली गई। कभी आठ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में लगने वाला यह मेला राज्य सरकार की शिथिलता के कारण मात्र दो वर्ग किलोमीटर में सिमट गया है।

दो दशक पहले हाजीपुर के कोनहारा घाट से सारण के पहलेजा घाट तक फैले सोनपुर मेला घूमने में पर्यटकों को तीन से चार दिन लग जाते थे। हर साल हजारों विदेश पर्यटक मेला देखने आते थे। अब पांच से छः घंटे में सोनपुर मेला देखने का कोरम पूरा हो जाता है। सिर्फ कार्तिक पूर्णिमा स्नान के लिए बिहार और उत्तर प्रदेश से जुटने वाले लाखों के भीड़ ही इस मेले को एहसास कराती है कि अब भी मेला जिंदा है।

पंजाब की गाय-बैल, आसाम और पश्चिम बंगाल की भैंस और उत्तर भारत के कई राज्यों के घोड़े और हाथी से कभी सोनपुर मेला गुलजार होता था। अब सिर्फ सारण जिले के कुछ लोग गाय और घोड़ा का बाजार लगाते हैं।

नब्बे के दशक में सोनपुर के बड़े जमींदारों में गिने जाने वाले बच्चा बाबू का घोड़ा, हाथी, शेर, बाघ, पशु-पक्षी सोनपुर मेला के आकर्षण का बड़ा केंद्र होता था।

हाथियों को लेकर कम होता गया क्रेज : सोनपुर मेले में हाथियों की बिक्री बंद होने के बाद कारोबारियों का क्रेज कम होता चला गया। 2007 के मेले में कारोबारी 77 हाथी लेकर मेले में पहुंचे जो 2014 में घटकर 39 हो गया। 2015 में 17, 2016 में 13 और 2017 में सिर्फ तीन हाथी मेले में दिखाई दिए। 2018 में केवल अनंत सिंह की हथिनी मेले में थी।

धीरे-धीरे उजड़ता चला गया बाजार : खेती की बदली शैली और कृषि आधुनिकीकरण (ट्रैक्टर हार्वेस्टर) ने कभी 35 हजार बैल बेचने वाले सोनपुर मेले में अब महज 100 से 150 बैल आ रहे हैं, वह भी सिर्फ कोरम के नाम पर। भैसों की बुकिंग पर रोक से भैंस बाजार भी खत्म सा हो गया है। हाथी की बिक्री बंद होने के बाद स्थानीय लोग दो से तीन हाथी सिर्फ दिखाने के लिए बाजार में रखते हैं। पशु बाजार के नाम पर विख्यात इस मेले में अब सिर्फ गाय, घोड़े और कुत्ते का बाजार लग रहा है।

पिछले दो वर्षों से पर्यावरण एवं वन विभाग की कड़ाई के कारण पक्षियों का बाजार करीब-करीब खत्म हो गया। लुधियाना और दिल्ली से गर्म कपड़े लाकर बेचने वाले ही अब इस बाजार में बच गए हैं। रात में सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर थियेटर देखने वालों की भीड़ इस मेले में जुटती है। आज का सोनपुर मेला बस यही है।

सोनपुर मेले के अस्तित्व को बचाने के लिए आवाज उठा रहे विधायक : सारण के सांसद राजीव प्रताप रूढ़ी मेले के अस्तित्व को बचाने के लिए वर्षों से लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका मानना है कि अगर सोनपुर को किसानों के प्रशिक्षण का राजस्तरीय केंद्र, कृषि उपकरणों का राष्ट्र स्तरीय बाजार और एग्रोप्रोसेस्ड इंडस्ट्री का केंद्र बनाया जाए तो फिर से सोनपुर मेला अपने ऐतिहासिक मुकाम पर पहुंच सकता है। वो सोनपुर मेला को ऑटोमोबाइल बाजार का भी केंद्र बनाने के पक्षधर हैं। चूंकि, बिहार की 75 से 80 फीसदी आबादी कृषि से जुड़ी हुई है और बिहार के आम, लीची, मकई, मखाना, केला पूरे देश में प्रसिद्ध हैं ऐसे में सोनपुर मेला को कृषि से जुड़ी उत्पादों का बाजार बनाया जाए तो सोनपुर मेला फिर से गुलजार हो उठेगा।

तवायफो के तंबू से थिएटर तक : आजादी के पहले इस मेले में राजवाड़ो और जमींदारों के तरफ से तवायफो के तंबू लगाए जाते थे जिनकी तरफ से सबसे ज्यादा तंबू लगाए जाते थे। उन्हें उस जमाने का सबसे बड़ा रईस माना जाता था कालांतर में तवायफ की तंबू की जगह थिएटर मंडलियों ने स्थान ले लिया बाद में इसका रूप और विद्रुप होता चला गया।


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