सामाजिक स्तर पर नारी – उत्थान सम्बन्धी प्रस्तावों की लंबी कड़ी, संविधान में संशोधन कर अनेकानेक प्रावधानों की घोषणा सहित अन्य पहल नारी के प्रति आम अवधारणाओं में बड़ा परिवर्तन नहीं ला सका। दहेज के नाम पर वधुओं को मिलने वाली प्रताड़ना, छेड़खानी, बलात्कार आदि से संबंधित खबरें प्रायः समाचारों में रोज सुनने व देखने को मिलते हैं। बेशक संविधान ने समान अधिकार की वकालत की और आरक्षण की दलीलें दी , लेकिन यथार्थ यही है कि नारी अधिकाधिक सौन्दर्यमयी भोग की सामग्री सी बनती जा रही है। कई स्तरों पर नारी ने इसे स्वीकार सा भी कर लिया है। शायद इसीलिए एक वर्ग विशेष की नारियां यह कहने में परहेज भी नहीं करती की अंग प्रदर्शन में बुरा ही क्या है। कभी यह भी कहा जाता था कि जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता का वास होता है। जर्मनी के चर्चित दार्शनिक रहे गेटे ने भी नारी के सम्बन्ध में कहा था कि नारी स्वर्ण और मुक्ता के समान है।
बढ़ते समय के साथ नारी के इस स्वरूप में लगातार कमी आई और एक दौर तो वो भी आया जब भगवान बुद्ध ने नारियों के लिए संघ के दरवाजे बन्द कर दिया। बदलते दौर में कबीर, तुलसी आदि संतो ने तो नारी को पापों का जड़ मान त्याज्य बता दिया। आखिर वो क्या वजह रही की नारी को माता से नरक के द्वार तक के सफर की संज्ञा दी गई ?
आधुनिक काल में मैथिलीशरण गुप्त और जय शंकर प्रसाद सरिके साहित्य के शिल्पकारों ने नारी के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करते हुए समाज को सावधान करने की कोशिश की।
भारत में मुख्य रूपेण नारी जीवन की दुखद विडम्बना यह रही की वो पुरुष को जन्म देकर तथा उसको समर्थ बना अपने को उसके प्रति समर्पित कर देती है। यही कारण है कि वो सबला होकर भी अबला कही जाती है। अवसर आने पर नारी ने अपने विलक्षण रूप को भी प्रकट किया।
बेगम हज़रत महल, झांसी की रानी, रानी दुर्गावती,इं दिरा गांधी इसके अकाट्य प्रमाण हैं। मनुस्मृति में उल्लेखित है की जिस कुल में नारी शोकाकुल रहती हैं, वह कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। नारी मूलतः स्नेह और सहिष्णुता की प्रतीक होती है। महाभारत काल में यक्ष के प्रश्न का उत्तर देते समय एक जगह युधिष्ठिर कहते हैं कि माता भूमि से भी भारी है। नारी प्रेम में अनेकानेक वीरों के आश्चर्यजनक कारनामों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। यह कहना गलत न होगा कि नारी पुरुष का निर्माण कर सच्चे अर्थों में समाज और राष्ट्र का निर्माण करती है। शायद इसी कथन को इंगित करते हुए आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व यूरोप के दार्शनिक अरस्तू ने कहा था कि नारी की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति या अवनिती टीका होता है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी एक जगह उल्लेखित करते हुए कहा है कि नारी को अबला कहना उसका अपमान है। उन्होंने यहां तक कहा कि पुरुष के शिक्षित होने से एक परिवार शिक्षित होता है लेकिन नारी के शिक्षित होने से दो परिवार शिक्षित होते हैं। समानता के अधिकार के तहत कई स्तरों पर नारी को घर से बाहर निकल अर्थो पार्जन की आजादी है लेकिन उसके घर की जिम्मेदारी यथावत रहती है। उसके बाहर निकलने से पुरुष के उपर से आर्थिक दबाव कुछ कम होता है लेकिन जिम्मेदारी दोगुना सी हो जाती है।
आज का दौर विषम है । नारी को बहुत सारे लुभावने विकल्प मिलते दिखाए गए हैं लेकिन पहुंच से दूर। विभिन्न सामग्रियों के विज्ञापन में नारी सौंदर्य की अमर्यादित प्रस्तुति, कई खेलों में चियर गर्ल्स के प्रयोग, गानों में नारी को लेकर परोसी जा रही अश्लीलता आदि नारी की वास्तविक परिभाषा को दूषित ही नहीं कर रहे बल्कि भविष्य के लिए नारी के स्थान के प्रति भी असीम चिंता को जन्म दे रहा है।
आज जरूरत है कि नारी अपने वास्तविक स्वरूप को पहचाने की वो सृजन की अधिकारिणी है न की भोग व आंनद हेतु परोसने वाली वस्तु। किसी के भरोसे उसके भविष्य का निर्धारण नहीं हो सकता बल्कि वो स्वयं में अपनी परिभाषा है। समाज रूपी रथ के संचालन में नारी की भूमिका और अधिकार उतना ही है जितना पुरुष का। इसलिए नारी को किसी के सामने दीनहीन होने की जरूरत नहीं। नारी का नारी होना ही उसकी सर्वश्रेष्ठ परिभाषा है, नारी को बस इसी को समझने की जरूरत है । अगर ऐसा हुआ तो उसके छवि के दुरुपयोग पर विराम ही नहीं लगेगा बल्कि उसके प्रति आम जनमानस का व्यवहार मर्यादित होगा जब व्यवहार मर्यादित होगा तब समाज का उत्थान अटल होगा।