2019 के लोकसभा चुनाव में काँग्रेस को देश की जनता ने नकार दिया है। बिहार में राजद का सफाया हो गया है । कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तथा राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद की बेटी मीसा तो चुनाव हारी ही साथ में छोटे-बड़े दलों के छत्रप भी पराजित हुए । कांग्रेस अलोकतांत्रिक संगठन, मठाधीशों , परिवारवाद और तीन राज्यों में जीत के बाद की गई गलतियों के कारण हारी है । कांग्रेस को समझना होगा कि अब वक्त बदल चुका है । देश की जनता नेहरू -गांधी परिवार से उब चुकी है । लिहाजा पार्टी नेतृत्व का अवसर नेहरू-गांधी परिवार से बाहर के व्यक्ति को भी सौंपा जाना चाहिए ।
फिलहाल कांग्रेस में जुझारू थींक -टैंक का सर्वथा अभाव है । सत्ता मिलने पर जो लोग सरकार के बड़े पदों पर कुंडली मारकर बैठ जाते हैं वही लोग सत्ता जाते ही वकालत या दूसरे पेशे में लग जाते हैं । ऐसे लोग पार्टी की पीसी तक सीमित हो जाते हैं। ऐसे मठाधीश जब खुद चुनाव लडते हैं तो बमुश्किल जमानत बचा पाते हैं। ऐसे लोग पार्टी को घुन की तरह खा रहे हैं। इन्हीं मठाधीशों के कारण कांग्रेस को उत्तराखंड एवं हिमाचल प्रदेश गंवाना पड़ा । मध्यप्रदेश और राजस्थान में काँग्रेस को शानदार वापसी के बावजूद सरकार गठन में दिक्कत आई । ज्योतिरादित्य सिंधिया और सचिन पायलट को सरकार का नेतृत्व नहीं सौंपे जाने से युवा वर्ग निराश हुआ था। यही निराशा कांग्रेस के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में आत्मघाती साबित हुआ । कांग्रेस को ऐसे मठाधीशों के बदले नये जुझारू लोग तलाशने होंगे । उसे संगठन और पार्टी की रणनीति पर आत्ममंथन करना चाहिए ।कांग्रेस के लिए कमलनाथ और गहलौत को दिल्ली वापस बुलाकर राज्य सरकारों की कमान ज्योतिरादित्य और सचिन पायलट को सौंपना भी भविष्य के लिए मुफीद हो सकता है । वरना आगे हस्र और भी बुरा हो सकता है ।वंशवाद का आरोप झेल रही कांग्रेस के लिए सोनिया गाँधी का फिर से अध्यक्ष बनना भविष्य के ठीक संकेत नहीं है ।
जहां तक बिहार में राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन के पराजय का सवाल है तो महागठबंधन के तमाम दलों को राजद की गलतियों का खामियाजा भुगतना पड़ा है । राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने अपने जनसंघर्ष के बूते बिहार की जनता का जो विश्वास प्राप्त किया था उसे उन्होंने भ्रष्टाचार और परिवारवाद की भेंट चढ़ा दिया । 2015 में नीतीश कुमार के साथ महागठबंधन की अपार सफलतता ने उन्हें राजद को फिर से खडा करने का जो अवसर दिया था उसे भी उन्होंने पुत्रमोह के कारण खो दिया । अपने परंपरागत मुस्लिम वोटरों की भावनाओं को दरकिनार कर लालू प्रसाद ने अब्दुल बारी सिद्दीकी के बजाय राजनीति रूप से अपने नवजात पुत्रों के लिए उपमुख्यमंत्री सहित छह महत्वपूर्ण विभाग झटक कर राजद के ताबूत में आखिरी कील ठोक दिया । रहा – सहा कसर राबड़ी देवी को विधान परिषद् में नेता और तेजस्वी यादव को प्रतिपक्ष का नेता बना कर पूरा कर लिया । लालू प्रसाद के इस कदम से राजद के परंपरागत यादव और मुस्लिम मतदाता दरकते चले गए । तेजप्रताप के पिकूलियर पॉलिटिक्स और तेजस्वी के वनमैन शो के कारण पार्टी के कद्दावर नेता निष्क्रिय हो गए । लिहाजा लोक सभा चुनाव में राजद का सफाया हो गया । लालू एंड कंपनी को राजद को फिर से पुनर्स्थापित करना है तो उसे शरद यादव का सदुपयोग करना चाहिए । शरद यादव का राजद के साथ आना पार्टी के लिए बड़ा अवसर है । इतिहास पुनः दोहराया जा सकता है । बात 1997 की है। चक्र छाप वाले जनता दल के जमाने में लालू प्रसाद दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष और शरद यादव कार्यकारी अध्यक्ष हुआ करते थे । बिहार में लालू प्रसाद को स्थापित करने में शरद यादव की बड़ी भूमिका रही है । लंबी दूरी के बाद शरद यादव का लालू के करीब आना महत्वपूर्ण राजनैतिक घटना है । शरद यादव भले ही पिछला दो चुनाव हार गए हों , लेकिन उनका वजूद ही काफी है । राजद को फिर से खड़ा होना है तो उसे शरद यादव का सदुपयोग करना चाहिए ।लालू की अनुपस्थिति में पार्टी को सर्वमान्य मार्गदर्शक की आवश्यकता है। क्योंकि पार्टी के वरीय नेताओं की निष्क्रियता से स्पष्ट हो रहा है उनका स्वाभिमान चोटिल हो रहा है । वे तेजस्वी के साथ अनकंफर्टेबल महसूस कर रहे हैं । लोकसभा चुनाव कैंपेन के दौरान भी इसका असर दिखा था। ऐसी परिस्थिति में पार्टी को लालू के कद का सर्वमान्य नेतृत्व चाहिए ।इस कमी को शरद ही पूरा कर सकते हैं। उन्हें विधिवत दल में शामिल कराकर कार्यकारी अध्यक्ष बनाया जाना मुफीद होगा । राजद की रक्षा के लिए यही अंतिम विकल्प है ।