बिहार : समाजवाद के कब्र में दफन हो रही है बिहारी अस्मिता

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यहिया सिद्दीकी
मुख्य संरक्षक
द रिपब्लिकन टाइम्स

बिहार, बिहारी और बिहारियत का इतिहास युगों पुराना है । बौद्धकाल से लेकर वर्तमानकाल तक हर क्षेत्र में बिहारी अस्मिता की अनूठी पहचान रही है । प्राचीनकाल, मध्यकाल और आधुनिककाल में बिहार की ऐसी -ऐसी उपलब्धियां रही हैं , जिस पर कोई भी राज और समाज रश्क कर सकता है । लेकिन आधुनिक बिहार में समाजवादियों की करतूत और अदूरदर्शी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की बदौलत बिहार की अहमियत दिन प्रतिदिन घट रही है । विगत तीन दशकों से बिहार पर राज करने वाले समाजवादियों ने स्वार्थवश समाजवाद की ऐसी कब्र खोदी की उसमें बिहारी अस्मिता दफन सी हो गई है ।
सनद रहे कि प्राचीन विश्व को पहला गणतांत्रिक राजव्यवस्था बिहार के ही वैशाली स्थित प्राचीन लिच्छवि साम्राज्य ने दिया ।ईसा पूर्व 7वीं शती अर्थात बुद्धकाल में वैशाली के लिच्छवि राजतन्त्र से गणतन्त्र में परिवर्तित हो गया।दुनिया का पहला स्पेस सेंटर बिहार के तारेगना में स्थापित था। महान अर्थशास्त्री, गणितज्ञ, राजनैतिक विज्ञानी चाणक्य, कौटिल्य और आर्यभट्ट यहीं पैदा लिए । शून्य का आविष्कार यहीं हुआ। विश्व का प्राचीनतम नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय इसी धरती पर स्थापित था। महात्मा बुद्ध और भगवान् महावीर को यहीं ज्ञान मिला। गुरु गोविंद सिंह और सम्राट अशोक का जन्म यहीं हुआ ।
मध्यकाल में मखदुम यहिया मनेरी का अस्तित्व बिहार से ही संभव हुआ। शहंशाह ए हिंद मुगलों को शिकस्त देकर हिन्दुस्तान पर राज करने वाले शेरशाह शूरी बिहारी कोख से ही पैदा लेने वाले रणबांकुरे थे। 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन में 80 साल के बूढे बाबू वीर कुंवर सिंह, मौलाना मजहरूल हक,पीर अली के शौर्य गाथा पर बिहार आज भी नाज करता है।मोहनदास करमचंद गांधी को इसी बिहार की धरती चंपारण ने महात्मा बनाया। यह बताना जरूरी है कि ब्रिटिश शासन के दौरान भी बिहार ने राजनीतिक बदलाव लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। हमारे इतिहास की पुस्तकों में जिसे चंपारण आंदोलन के नाम से जाना जाता है, नील की खेती करने वाले किसानों के शोषण के खिलाफ यह आंदोलन महात्मा गांधी ने 1917 में बिहार के चंपारण से शुरू किया जो कि बिहार के उत्तर-पूर्व में स्थिहत एक जिला है।
आधुनिककाल में देश को प्रथम राष्ट्रपति बिहार ने दिया । बिहार ही वह राज्य है जहां से केंद्र की सत्ता तय होती थी । बिहार ही वह इकलौता राज्य है जहां संविधान को खुद चलकर आना पड़ा था । जब संविधान लागू हो रहा था तब संविधान सभा के तात्कालिक कार्यकारी अध्यक्ष डाॅ.सच्चिदानंद सिंहा बीमार थे , उनका हस्ताक्षर लेने खुद संविधान को बिहार आना पड़ा था । 80 के दशक में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राष्ट्रव्यापी “संपूर्ण क्रांति ” का सूत्रपात बिहार की धरती से हुआ ।इतिहास इस बात का साक्षी है कि बिहार बहुत ही लंबे समय से राजनीति के केंद्र में रहा है। इसे इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि पिछले सात दशकों में भारत में जो महत्त्वपूर्ण राजनीतिक बदलाव हुए हैं, बिहार की धरती उसकी जननी रही है। 1990 के दशक में बिहार न केवल मंडल-समर्थक और मंडल-विरोधी आंदोलन के केंद्र में था, 1975 में वह आपातकाल-विरोधी आंदोलन का भी केंद्र रहा जो ‘जेपी आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है और जिसका नेतृत्व जयप्रकाश नारायण ने किया था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया था। यह तथ्य भी सालता है कि समाजवादियों की अदूरदर्शिता के कारण यदि 1989 में चंद्रशेखर महाराजगंज छोड़कर नहीं जाते तो बिहार देश को एक समाजवादी प्रधानमंत्री देने में कामयाब हो जाता। बहरहाल उसी संपूर्ण क्रांति की कोख से निकले समाजवादियों की पिछले तीन दशकों से बिहार में सरकार है , लेकिन संपूर्ण बदलाव के सिद्धांतों को लेकर सत्तासीन इन समाजवादियों ने बिहारी अस्मिता को ही जमींदोज कर डाला ।
भगवतिया देवी जैसी पत्थर तोड़ने वाली मजदूरन को संसद में बिठाने वाले लालू प्रसाद धनलौलुपता की बदौलत पिछडों का नेता से देवता बनने का अवसर चूक गए । मौसम वैज्ञानिक नाम से मशहूर रामविलास पासवान पूंजीवाद की गोद में जा बैठे । रही – सही कसर सुशासन बाबू नीतीश कुमार की अदूरदर्शी राजनैतिक निर्णय ने पूरा कर दिया । 2014 के लोकसभा चुनाव में जब वे भाजपा व नरेंद्र मोदी से बिहार के लिए उपप्रधानमंत्री और कई महत्वपूर्ण मंत्रालय हासिल कर सकते थे , तब वे एनडीए से अलग हो गए । नरेंद्र मोदी के लिए चुनौति के रूप में स्थापित नीतीश कुमार के लिए जब विपक्ष का बड़ा चेहरा बनने का अवसर था तब वे एनडीए के शरणागत हो गए । यह निर्णय बिहार हित में अदूरदर्शी साबित हुआ । लगभग आधा बिहार जीतने के बावजूद नई सरकार से नीतीश कुमार बेदल हैं । आज की तारीख में उनके समक्ष सांप – छछुन्दर वाली स्थिति है।
कुल जमा यह कि इन समाजवादियों ने अदूरदर्शिता, अवसरवादिता , सत्ता वो धनलौलुपता तथा सिद्धांतों से समझौता की बदौलत बिहार की अस्मिता का कफन – दफन कर डाला । पिछले तीन दशक से बिहार केन्द्रीय सत्ता केलिए गैर जरूरी सा हो गया है । यह स्थिति बिहार, बिहारी और बिहारियत के लिए सही नहीं है । इतिहास इन समाजवादियों को कभी माफ नहीं करेगा ।


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