अहिंसा के बादशाह – बाचा खान

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यहिया सिद्दीकी
संपादक

लवार और ख़ंजर से जंग जीतने वाले बादशाहों से जुदा एक बादशाह, ऐसा भी हुआ है जिसने अहिंसा के हौदे पर सवार होकर लोगों के दिलो की जमीन पर अपनी बादशाहत कायम की थी। ताउम्र भारत पाक तकसीम की मोखालाफ़त करने वाले इस छह फीट लंबे बादशाह का नाम हैखान अब्दुल गफ्फार खान जिन्हें हिन्दुस्तान में बादशाह खान, पाकिस्तान-अफगानिस्तान में बाचा खान और दुनिया में फ्रंटियर गांधी के नाम से जानती है।

06 फरवरी 1890 में एक अमीर पठान सरदार के घर पैदा होने वाले अहिंसा के इस पुजारी ने पठान जैसी लड़ाकू कौम को खुदा के अहिंसक सिपाहियोंमें तब्दील कर दिया था। इस्लाम के इस अहिंसक सिपाही ने लाल कुर्ती में पठानों की खुदाई खिदमतगारनाम से ऐसी एक तंजीम कायम की थी कि जिसके अस्सी हजार से एक लाख खिदमतगारों ने अंग्रेजों के तमाम जुल्म सहकर भी कभी हथियार नहीं उठाया था। यहां तक कि 1930 में किस्सा ख्वानी बाजार नरसंहार में ब्रिटिश फौज द्वारा 400 (अंग्रेज इस संख्या को 20 बताते थे) निर्दोष और निहत्थे पठानो का सीना गोलियों से छलनी करने के बाद भी उन्होंने हथियार को हाथ नहीं ही लगाया था। महात्मा गांधी के व्यक्तिगत और राजनैतिक मित्र बाचा खान ने 20 साल की उम्र में ही अपना पहला स्कूल खोल दिया था। तालीम को तरक्की का हथियार समझने वाले बाचा खान की जिंदगी के तीन दिन का हर तीसरा दिन जेल में बीता था!यहां तक कि बंटवारे का विरोध करने की सजा उन्हें आजादी के बाद भी मिलती रही। पाकिस्तान में उन्हें हिंदुस्तान का एजेंट समझा जाता था और कई बार उन्हें सलाखों के पीछे भेजा गया, इधर आजादी के दिनों में उनके प्रति कांग्रेस की बेरुखी ने उन्हें ये कहने को मजबूर कर दिया कि आपने हमें भेड़ियों के हवाले कर दिया है

दो बार नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए बादशाह खान की जिंदगी और कहानी के बारे में लोग कितना कम जानते हैं। 98 साल की जिंदगी में 35 साल उन्होंने जेल में सिर्फ इसलिए बिताए कि इस दुनिया को इंसान के रहने की एक बेहतर जगह बना सके

महात्मा गांधी को छह-सात वर्ष तक जेल में रहना पड़ा, सू की को 15 वर्ष तक और नेल्सन मंडेला को 27 वर्ष तक। लेकिन यह सब खान अब्दुल गफ्फार खान के संघर्ष के सामने कुछ नहीं, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी का ज़्यादातर हिस्सा ब्रिटिश राज और फिर पाकिस्तान की जेलों में गुजार दिए। अपनी पूरी जिंदगी मानवता की कल्याण के लिए संघर्ष करते रहे ताकि एक बेहतर कल का निर्माण हो सके। सामाजिक न्याय, आजादी और शांति के लिए जिस तरह वह जीवनभर जूझते रहे, वह उन्हें नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर और महात्मा गांधी जैसे लोगों के बराबर खड़ा करती हैं। बादशाह खान की विरासत आज के मुश्किल वक्त में उम्मीद की लौ जलाती है।

खान गफ्फार खान (सीमान्त गांधी) 1969 में भारत की प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के विशेष आग्रह पर इलाज के लिए भारत आये। हवाई अड्डे पर उन्हें लेने श्रीमती गांधी और जे पी नारायण गए। खान जब हवाई जहाज से बाहर आये तो उनके हाथ में एक गठरी थी जिसमे उनका कुर्ता पजामा था। मिलते ही श्रीमती गांधी ने हाथ बढ़ाया उनकी गठरी की तरफ – “इसे हमे दीजिये ,हम ले चलते हैंखान साहब ठहरे, बड़े ठंढे मन से बोले – “यही तो बचा है ,इसे भी ले लोगी” ?
जे पी नारायण और श्रीमती गांधी दोनों ने सिर झुका लिया। जे पी नारायण अपने को संभाल नहीं पाये उनकी आँख से आंसू गिर रहे थे। बटवारे का पूरा दर्द खान साब की इस बात से बाहर आ गया था। क्योंकि वो बटवारे से बेहद दुखी थे। वे भारत के साथ रहना चाहते थे, लेकिन भूगोल ने उन्हें मारा।

अहिंसा को कुरान की सबसे अहम तालीम समझने वाले पांच वख्त के ये पाबंद नमाज़ी जिहाद”  या पवित्र युद्धको जरूरी बताते थे और कहते थे कि ये (जिहाद) पैगम्बर साहब का हथियार था, मगर आप इसे नहीं जानते है। इस हथियार को धैर्यऔर सदाचारकहा जाता है। दुनिया की कोई ताकत इसके सामने नहीं ठहर सकती है। मगर दुनिया को खुद अहिंसा पर कायम रह कर अहिंसक बनने की सीख देने वाले बाचा खान के साथ इतिहास ने भी इन्साफ नहीं किया। नापाक पाकिस्तान ने उन्हें 1988 में नजरबंद कर दिया। 98 साल की उम्र में 20 जनवरी 1988 को अंतिम साँस लेने के पूर्व बीमार चल रहे बाचा खान इलाज क लिए इंडिया आते रहते थे, उनके अन्तिम दिनों में जब डाक्टरों में हाथ खड़े कर दिए थे तब भारत सरकार ने उन्हें उनके अभिन्न मित्र महात्मा गांधी के नजदीक ही दफन किये जाने की पेशकश की थी लेकिन अपनी मिट्टी से बेइन्तहा मोहब्बत करने वाले सीमांत गांधी ने अपनी मातृ भूमि जलालाबाद, अफगानिस्तान में दफन होने की ख्वाईश जताई थी।            
केवल जरूरी सामानों की गठरी लेकर चलने वाले बाचा खान की हैसियत और कद का अंदाजा लगाने के लिए इतना बताना काफी होगा कि जलालाबाद में 20 जनवरी को दूसरी दुनिया के सफर को निकले बाचा खान की मैय्यत में भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गांधी सहित अन्य राष्ट्रीय नेता शामिल हुए थे। लोग उनकी मैय्यत में शामिल हो सके इसके लिए उस दिन पेशावर और जलालाबाद के बीच बॉर्डर पार करने की जरूरी औपचारिकता खत्म की गयी थी ताकि पाकिस्तान से लोग जाकर उनकी मैय्यत में शामिल हो सकें। यहां तक की उस दौरान चल रहे रूस-अफगान युद्ध में उनकी अंतिम यात्रा की सहूलियत के लिए एक दिन का युद्ध विराम तक घोषित किया गया था। हजारों लोग पाकिस्तान से सीमा पार कर जलालाबाद गये थे और अहिंसा के इस बादशाह को श्रद्धाञ्जलि दी थी। यकीन कीजियेगा कि  छह फीट लंबे  और 100 किलो के जिस्म का जनाजा जब उठाया गया होगा, इतिहास के पन्ने गीले हो गए होंगे, दो कौमी नजरिये की रूह रोने लगी होगी, हिदुस्तान पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंग्लादेश के करोड़ों लोगों की आंखे नम हो गयी होगी। लेकिन हम एक ऐसी कौम हैं, जिन्हें जंगजू याद रहते हैं, कुटिल नेता याद रहते हैं, शातिर अमीर याद रहते हैं, मगर 1987 में सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित पहले गैर भारतीय नागरिक बाचा खान नहीं।
अहिंसा के पुजारी इस दूसरे गांधी को लाखों सलाम!

आज 06 फरवरी को सीमांत गाँधी भारत रत्न खान अब्दुल गफ्फार खान के 129 वीं जयंती के अवसर पर द रिपब्लिकन टाइम्सकी ओर से उन्हें हार्दिक श्रद्धाञ्जलि!

जयहिंद!


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