अखंड भारत का दर्द – मिस्टर महात्मा

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यहिया सिद्दीकी
संपादक

मैं भारत हूँ। अखंड भारत। न बांग्लादेश ना पाकिस्तान। कदाचित् पूरा-पूरा हिन्दुस्तान। तुम्हारी माँ। मां भारती। मैं वही हूँ, जिसकी गोदी में लाहौर वो कराची खेलता था। मेरे ही आंचल में ठाका सोता था। कभी मेरे पाँव चनाब व पद्मा नदियां पखारती थी। मेरे आंगन में सर्वत्र प्रेम था, सद्भाव था और थी अखंडता। लेकिन एक दिन- हां-हां एक दिन आज से 73 बरस पहले सब नष्ट हो गया। मेरे अपने रूठ गए-टूट गए। मेरे आंगन में दीवारें खड़ी हो गई। नफरत की दीवार। बंटवारे की दीवार। सियासत की दीवार। बगावत की दीवार।

यूं तो मेरे आंगन में मुकम्मल जहां बसता था। मैं अपने आशियाने के जर्रे-जर्रे से बेइंतहा प्यार करती थी, लेकिन मुझे अपने दो सपूतों पर सर्वाधिक गर्व था। मेरी तरबियत से एक मिस्टर बन गया तो दूसरे को मैंने महात्मा बना दिया। यहाँ मैं मिस्टर की बात नहीं करूँगी। कभी करना भी नहीं चाहती, क्योंकि उसने अपने ही आंगन में नफरत के ईंट और गारे से पाकिस्तान रूपी एक ऐसा महल खड़ा कर दिया, जिसके छिटकते मलवे से पूरी दुनिया आतंकित है। ऐसे कपूत को न तो याद करना चाहती हूँ और ना ही मुझे उससे कुछ कहना है। लेकिन आज कहूँगी -जरूर कहूँगी। उससे कहूँगी जिसे मैंने महात्मा बनाया था। जिसके बापू बन जाने पर खुश हुई थी। जिसके राष्ट्रपिता बन जाने से गौरवान्वित हुई थी। जिससे बड़ी उम्मीदें थीं। आज उससे कहूँगी – खूब कहूँगी –

मेरे प्रिय महात्मा! तुम मेरे अपराधी हो। एक तुम थे जिसपर मुझे भरोसा था – अटूट विश्वास था। विश्वास था कि तुम सब संभाल लोगे। सदियों गुलामी की जंजीर में सिससकी, लडती और बचती-बचाती अपनी मां भारती के अखंड स्वरूप की रक्षा करोगे, लेकिन मैं खंडित होती रही और तुम देखते रहे। तुम तब भी कुछ नहीं बोले जब तुम्हारे अपने नफरतों की दीवार खड़ी कर रहे थे। मैं तीन खंडों में विभाजित हो गई फिर भी तुम खामोश रहे। तुम्हारी ही खामोशी के कारण आज रक्षा बजट के नाम पर हिन्दुस्तान 52.5 अरब डॉलर, पाकिस्तान 11 सौ अरब रुपए और बंगलादेश 25771 करोड़ टाका का प्रतिवर्ष अपव्यय कर रहा है। ये धन अगर विकास पर खर्च हुआ होता तो निःसंदेह पच्चीस -तीस साल पहले मैं विकसित हो गई होती। अगर तुम चुप न रहते तो आज मेरा विस्तृत भूखंड होता तथा दुनिया में सर्वाधिक संतानों की माँ मैं ही होती। मुझे उम्मीद था कि मेरे घर को तुम ही हो जो संगठित रख सकते हो। लेकिन तुमने ऐसा कुछ नहीं किया जो तुम्हें करना चाहिए था। इसीलिए तुम मेरे अपराधी हो।

तुम अपराधी इसलिए भी हो कि तुम्हारे उत्तराधिकारी ने भी मेरी खोई प्रतिष्ठा, अखंडता और एकता के लिए कुछ नहीं किया। राजेंद्र से लेकर नरेंद्र तक जिसे भी तुमने उत्तराधिकारी बनाया सबने मुझे निराश किया। उम्मीद करती हूँ तुम और तुम्हारी संतति मेरी भावनाओं को समझ रही होगी। कहीं कोई कठिनाई हो रही हो तो मेरे ही एक पुत्र अजमल सुल्तानपुरी की ये नज़्म (कविता) सुनो। उम्मीद है ये कविता तुम्हारी भावनाओं को जरूर झिंझोडेगी। तुम्हारे पौरुष को अवश्य धिक्कारेगी।

अजमल सुल्तानपुरी की कविता का वीडियो  


बहरहाल माँ हूं न ! मुझे पता है कि तुम सब 73 वीं स्वतंत्रता दिवस “ का जश्न मना रहे हो। लाख नाराज़गी हो, लेकिन एक माँ कभी भी अपने बच्चों की खुशियों को खंडित नहीं कर सकती। सदैव खुश रहो।
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ
  जय हिंदजय भारत!
  तुम्हारी,
  माँ भारती


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