डॉक्टर देवाशीष बोस, कोसी में पत्रकारिता के वो कोहनुर रहे जिसपर पत्रकारिता को भी नाज रहा। स्मृतिशेष नरेंद्र कुमार और चर्चित शिक्षिका शेफाली बोस के आंखो के तारे देवाशीष का जन्म 22 दिसंबर 1962 में मधेपुरा में ही हुआ। बाल्यकाल से ही अपने मां के लाडले देवाशीष ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा मधेपुरा से ही ली। अपने समय में उन्होंने सिर्फ टीपी कॉलेज के चर्चित छात्रनेता के रूप में ही पहचान नहीं बनाई वरन खोजी पत्रकारिता में महारथ भी हासिल कर चुके थे। शुरू से ही एनसीसी व स्काउट में रुचि रखने वाले देवाशीष दा ने हिंदी, इतिहास, अंग्रेजी में एम ए करने के साथ-साथ इन भाषाओं के अलावा बांग्ला, मैथिली, भोजपुरी, अंगिका में भी अपनी मजबूत पकड़ बनाई जो उनके धारदार और व्यापक पत्रकारिता का आधार बना।
देवाशीष बोस का नाम सूनते ही मानस पटल पर एक ऐसा चेहरा बरबस छा जाता है, जो अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में पत्रकारिता, वकालत, उद्घोषणा व समाजसेवा में मधेपुरा ही नहीं बल्कि कोसी प्रमण्डल की सीमा को लांघता हुआ सूबे बिहार की पहचान बना। सफलता के शिखर को चूमने वाले लोगों में बहूत कम ही लोग ऐसे होते हैं, जो बिना किसी विरासत के खुद को विपरित परिवेश में भावी पीढ़ी के आदर्श के रूप में स्थापित कर पाते हैं। ऐसे ही में एक शख्सियत के रूप में डाॅ देवाशीष बोस का भी नाम आता है। डाॅ बोस को विशेषकर कोसी प्रमंडल में पत्रकारिता के विभिन्न रुपों को स्थापित करने का ही श्रेय नहीं जाता बल्कि अपने दीर्घ पत्रकारिता काल में भावी पीढ़ी को और समृद्ध करने के भागिरथी प्रयास का भी श्रेय डाॅ बोस को ही जाता है। शायद यही कारण है कोसी प्रमंडल डाॅ बोस को हिन्दी पत्रकारिता का भीष्म पितामाह तस्लीम करने से गुरेज नहीं करता।
हवाओं के रुख को अपने क़ाबिलयत के दम पर बदल कर इन्द्रधनुषी सफलता के पर्याय बने देवाशीष बोस छात्र जीवन से ही इंकलाबी स्वभाव के रहे। देवाशीष बोस ने जेपी आंदोलन, मधेपुरा जिला व विवि बनाओ आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई। प्रारम्भ से ही वो नेतृत्व के साथ-साथ सृजन के पक्षधर रहे, शायद यही कारण रहा की मधेपुरा में इप्टा सहित कई सामाजिक व पत्रकारिता से जुड़े संगठनों की स्थापना उन्होंने की। पर्यावरण के प्रति भी उनकी खासी चिंता रही, जिसका प्रमाण मधेपुरा न्यायालय सहित सूबे के अलग अलग हिस्सों में उनके लगाए पेड़ हैं। तत्कालीन जिलाधिकारी केपी रमय्या के साथ मिलकर मधेपुरा बाजार को अलग स्वरूप देने के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है।
पत्रकारिता, वकालत, उद्घोषणा, समाजसेवा पर उनका समान प्रभुत्व था। पत्रकारिता में कलम के अद्भुत महारथी डॉक्टर बोस कोसी व मधेपुरा में जहां सहारा, प्रभात के प्रभारी रहे, वहीं संडे मेल, इंडिया टुडे, चौथी दुनिया, नई दुनिया, पांचजन्य, संस्कार में अपनी कलम के तेज को स्थापित किया। 2008 में आकाशवाणी के सर्वश्रेष्ठ पत्रकार के सम्मान पाने वाले डॉक्टर बोस राष्ट्र के अलग-अलग हिस्सों में अनगिनत सम्मानों से नवाजे गए।
जिले के प्रथम सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकार का गौरव रखने वाले डाॅ बोस ने पत्रकारिता में लगभग चार दशक के अनुभव के साथ-साथ महाविद्यालय में अध्यापन व वकालती पेशे में दो दशक के लम्बे अनुभव के अलावा समाजसेवा विभिन्न आयामों को नई दशा व दिशा प्रदान की।
अपनी अद्भूत व अद्वितीय प्रतिभा के बल पर डाॅ बोस को अन्तराष्ट्रीय मैथली सम्मेलन 2008 में अन्तराष्ट्रीय मिथिला विभूति सम्मान, 2008 में आकाशवाणी सर्वोत्तम पत्रकार का सम्मान,1993 में राजेन्द्र माथूर कूल कलाधर की उपाधि, विद्या वाचस्पति सम्मान के अलावा दर्जनों सम्मान से उन्हे नवाजा गया।
मधेपुरा शहर में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के स्मारक का निर्माण और पहली बार महामहिम राज्यपाल को लाकर उन्होंने मजबूत इरादे को दिखाया। अपने जीवन काल में जिला न्यायालय के एक अलग वकील के रूप में अपनी छाप छोड़ी। जिला न्यायालय हो या उदाकिशुनगंज अनुमंडल न्यायालय के भवन का उद्घाटन, दोनों में उच्च न्यायालय के जज के साथ मंच साझा करते हुए मंच संचालन करना आज भी लोगों को याद है। पत्रकारिता व वकालत के साथ साथ मंच उद्घोषणा में भी उन्हें महारथ हासिल था। सरकारी व गैर सरकारी कार्यक्रमों के संचालन के सर्वश्रेष्ठ विकल्प के रूप में सदैव स्थापित रहे। मंच संचालन में राष्ट्रीय महारथ हासिल कर उन्होंने इस धरती को एक नया पहचान भी दिया।
यह धरती तब और धन्य हो गई जब अलग-अलग मौके पर उन्होंने नेपाल, भूटान, श्रीलंका, बांग्लादेश में राष्ट्र का नेतृत्व करते हुए शांतिदूत की भूमिका निभाई। बीबीसी में 2008 में उनकी पत्रकारिता को लोग आज भी याद करते हैं। डॉक्टर देवाशीष बोस की बहुमुखी प्रतिभा कुछ इस कदर थी की उनके चाहने वाले कई देशों में थे। उन्होंने लोगों के दिल पर हमेशा राज किया। निडर स्वभाव के बोस को कैंसर हो गया जिससे उनके जीवन में एक नया मोड़ आ गया। ऐसे मोड़ पर जहां अक्सर लोग टूट जाते हैं, लेकिन उन्होंने टूटने के बजाय कैंसर से संघर्ष करते हुए अपना जीवन सफर अपने अंदाज में ही जारी रखा। उनके चाहने वालों ने भी दिल खोल कर सहयोग किया। आखिरी दौर तक वो समाजिक गतिविधियों में रमें रहे।
हालात से कभी हार न मानने वाले डॉक्टर बोस ने मौत से भी खूब आंख मिचौली की लेकिन कब तक? आखिर 21 अगस्त, 2016 को वो जिंदगी से जंग हार गए। उनकी मौत की खबर जिसने भी सुनी सन्न रह गए। मानो कोसी ने हिंदी पत्रकारिता में कुछ खास खो दिया। उनके निधन पर कोसी और सूबे के कई नेताओं ने शोक व्यक्त करते हुए कहा कि बोस जी का जाना दुखद ही नहीं अपूरणीय क्षति है। वहीं शरद यादव, सांसद पप्पू यादव, मंत्री चंद्रशेखर ने उनके आवास पर आकर उन्हें नमन किया। बोस दा का आखरी दर्शन करने उनके आवास पर पहुंचे तत्कालीन डायनेमिक जिलाधिकारी मो. सोहैल ने नम आखों से श्रधांजलि देते हुए कहा था कि डॉ. देवाशीष बोस जैसे शख्सियत का असमय चले जाने से मधेपुरा ने समाजिक सद्भावना, समाप्रदायिक सहयोग, गरीब और मजलुमों के हक में उठने वाली बेबाक आवाज को खो दिया है और पत्रकारिता का एक युग लगभग समाप्त हो चुका है।
देश के अलग अलग हिस्से से पत्रकारों ने शोक सभा आयोजित कर उन्हें याद किया। उनके आवास से जब उनकी आखिरी यात्रा निकली तो मानो हर कोई अपने लाडले को आखिरी सलाम करने को आतुर था। लोगों ने नम आंखो से उन्हें सलाम किया। लोगों ने कहा कि जिले में आजतक ऐसी आखिरी यात्रा किसी की नहीं निकली…शायद यह यहां के लोगों का प्यार था।
यद्यपि यह सत्य है कि डाॅ बोस के जीवन का सफर 22 दिसम्बर 1962 से शुरू होकर 21 अगस्त 2016 को हमेशा -हमेशा के लिए थम सी गई। तथापि उनकी यादें अलग-अलग रुपों में आज भी अपनी मौजूदगी की दास्तां को बयां करती है। डाॅ बोस भले ही हमारे बीच आज नहीं हैं लेकिन इतना तो तय है कि मधेपुरा जब भी अपने इतिहास के आइने में खूद को तलाशेगा, तब डाॅ बोस की यादें जिले को अपने आप पर नाज करने को विवश कर देगी। आज भले ही डॉक्टर बोस हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके किए कार्य हरपल उनके होने का अहसास कराता है।
काश आप होते तो कितना अच्छा होता। नम आंखो से आपकी दूसरी पुण्यतिथि पर नमन