संडे स्पेशल : “मुहब्बत के सिकंदर” को सलाम

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हिया सिद्दीकी
संपादक

” कहीं मंदिर तो कहीं मस्जिद की तख्ती लगा बैठे,
हमें क्या बनाना था हम क्या बना बैठे!
परिंदो में फिरकापरस्ती क्यों नहीं मिलती,
वह कभी मंदिर पे तो कभी मस्जिद पे जा बैठे! !”

यह पंक्तियां शायद इस लेख में शामिल तस्वीरों में नज़र आ रहे दो मानवों के लिए ही कही गई है । ये हैं संत दिलो दास और मौलवी गुलाम मुस्तफा ।दोनों बिहार के मधेपुरा जिला अंतर्गत चौसा के रहने वाले हैं , लेकिन हकीकत में ये परिंदे ही तो हैं । मंदिर के चबूतरा पर दोनों की जोड़ी देखकर विषाक्त बने माहौल में भी रूह को सकून मिलता है । दोनों का प्रेम, अपनत्व और सौहार्द धर्म के नाम पर गला काटने वालों के लिए मुहब्बत का सबक है । सम्मान का संदेश है। मसलन दोनों कह रहे हों ……

“बूतखाना तोड़ डालिए मस्जिद को ढहाईए ,
दिल को न तोड़िए ये खुदा का मकाम है।”

संत दिलो दास और मौलवी गुलाम मुस्तफा

सनद रहे कि यह मैं खुद मधेपुरा जिला अंतर्गत चौसा का निवासी हूँ। चौसा प्रखंड मुख्यालय है। विगत दिनों मुख्यालय स्थित दुर्गा मंदिर के चबूतरा पर बैठे संत दिलो दास और मौलवी गुलाम मुस्तफा को बैठा देख खींचा चला गया । खुद को उनकी तस्वीर खींचने से रोक नहीं सका । गौरतलब है कि यह वही चौसा है, यह वही दुर्गा मंदिर है जिसके विस्तृत मैदान पर एक साथ दशहरा और मुहर्रम मेला लगता रहा है । मैदान के एक छोर पर देवी दुर्गा तो दूसरे छोर पर ताजिया स्थापित किया जाता रहा है । चौसा का यह अद्भुत संगम “मानव मेला” के नाम से सुविख्यात है । लिहाजा यह कहना प्रासंगिक होगा कि संत दिलो दास और मौलवी गुलाम मुस्तफा की मुहब्बत चौसा के महान परंपरा और हमारे पूर्वजों के संस्कार की परिणति है । जीवंत दस्तावेज है ।
बातचीत के क्रम में संत दिलो दास कहते हैं कि “क्या हिन्दू- क्या मुसलमान? सबजन हैं ईश्वर की संतान । सनातन हिन्दू धर्म ‘बसुधैव कुटुम्बकम’ की नीति सिखाता है ।  इसलिए संपूर्ण मानव जाति हमारे लिए प्रिय हैं । घृणा से क्लेश बढ़ता है और क्लेशी व्यक्ति सच्चा हिन्दू नहीं हो सकता।” मौलवी गुलाम मुस्तफा अपनी राय जाहिर करते हुए कहते हैं – ” हमारे नबी हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम रहमतुल्लिल मुसलेमीन नहीं बल्कि रहमतुल्लिल आलेमीन बना कर भेजे गए थे । आलेमीन का मतलब पूरी दुनिया होता है । हमारे नबी ने इंसानों ,पशु -पक्षियों ,यहां तक की प्रकृति के कण-कण से प्यार करना सीखाया है और जिसके दिलों में मुहब्बत नहीं है वह पक्का मुसलमान नहीं हो सकता । “

आज जब देश में धर्म के नाम पर असहिष्णुता का माहौल है । भगुआ और हरा के लिए मार काट मची है, ऐसे दौर में निःसंदेह दोनों की बातें समाज के लिए उपयोगी हैं । शिक्षाप्रद हैं , अमृत हैं। मध्यकाल में सूफीवाद और भक्ति आंदोलन के गर्भ से निकले साधु-संतों और सूफियों ने विविधता में एकता का जो संदेश दिया था – देश में जो मुहब्बत की इमारत तैयार किया था उसके पहरेदार हैं ।

“द रिपब्लिकन टाइम्स” की ओर से हम संत दिलो दास और मौलवी गुलाम मुस्तफा को सलाम करते हैं । धर्म के रक्षक – साझी विरासत के पहरूए दोनों दिलवर को ससम्मान दो पंक्तियां अर्पित करते हैं –

“चाहत से फतह करते हैं लोगों के दिलों को,
ये ऐसे सिकंदर हैं जो लश्कर नहीं रखते।

जय हिंद!


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