देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर 1884 को बिहार के सारण क्षेत्र में जीरादेई नाम के गांव में हुआ था, यह गांव अब सिवान जिले में है। राजेंद्र प्रसाद का विवाह 12 साल की उम्र में हुआ था। उनकी शादी बड़े धूम धाम से हुई थी। घोड़ों, बैलगाड़ियों और हाथी के साथ चले बारात को वधू के घर पहुंचने में दो दिन लगे थे। पालकी में ही सो गए थे राजेंद्र…
वर एक चांदी की पालकी में (जिसे चार आदमी उठाते थे) सजे-धजे बैठे थे। रास्ते में उन्हें एक नदी भी पार करने थी। बारातियों को नदी पार कराने के लिए नाव का इस्तेमाल किया गया। घोड़े और बैलों ने तैरकर नदी पार की, मगर इकलौते हाथी ने पानी में उतरने से इंकार कर दिया, जिसके कारण हाथी को पीछे ही छोड़ना पड़ा। राजेन्द्र प्रसाद के पिता ‘महादेव सहाय’ को इसका बड़ा दुख हुआ था।
वधू के घर पहुंचने से दो मील पहले उन्होंने किसी अन्य विवाह से लौटते दो हाथी देखे। उनसे लेनदेन तय हुआ और परंपरा के अनुसार हाथी फिर विवाह के जुलूस में शामिल हो गए। किसी तरह से बारात मध्य रात्रि को वधू के घर पहुंचा। लम्बी यात्रा और गर्मी से सब बेहाल थे और वर तो पालकी में ही सो गये थे। बड़ी कठिनाई से उन्हें विवाह की रस्म के लिए उठाया गया।
पत्नी से कम बात कर पाते थे राजेंद्र प्रसाद
वधू, राजवंशी देवी, उन दिनों के रिवाज के अनुसार पर्दे में ही रहती थी। छुट्टियों में घर जाने पर अपनी पत्नी को देखने या उससे बोलने का राजेंद्र प्रसाद को बहुत ही कम अवसर मिलता था। राजेंद्र प्रसाद बाद में राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए। तब वह पत्नी से और भी कम मिल पाते थे।
वास्तव में विवाह के प्रथम पचास वर्षों में शायद पति-पत्नी पचास महीने ही साथ-साथ रहे होंगे। राजेंद्र प्रसाद अपना सारा समय काम में बिताते और पत्नी बच्चों के साथ जीरादेयू गांव में परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रहती थीं।
छात्रकाल के दौरान राजेंद्र प्रसाद आई. सी. एस. की परीक्षा देने के लिए इंग्लैण्ड जाना चाहते थे। उन्हें डर था कि परिवार के लोग इतनी दूर जाने की अनुमति कभी नहीं देंगे। इसलिए उन्होंने बहुत ही गुप्त रूप से जहाज से इंग्लैण्ड जाने के लिए सीट का आरक्षण करवाया और अन्य सब प्रबंध किए। यहां तक कि इंग्लैण्ड में पहनने के लिए दो सूट भी सीलवा लिए, लेकिन जिसका डर था वही हुआ। उनके पिताजी ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। राजेंद्र प्रसाद ने बहुत अनिच्छा से इंग्लैण्ड जाने का विचार छोड़ दिया।
राजेंद्र प्रसाद के निधन के 50 से ज्यादा वर्ष गुजर गए, लेकिन अभी भी उनका बैंक खाता चालू है। बैंक ने राजेंद्र प्रसाद के बचत खाते को प्रथम ग्राहक का दर्जा दिया है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने मृत्यु से कुछ समय पहले ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक पीएनबी में अपना अकाउंट खोला था। फिलहाल, उनके बैंक अकाउंट में 1213 से अधिक रुपए हैं। पंजाब नेशनल बैंक की एग्जीबिशन रोड शाखा में 24 अक्टूबर, 1962 को डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने अपना खाता खोला था।राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वज मूलरूप से कुआं गांव, अमोढ़ा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। यह एक कायस्थ परिवार था। कुछ कायस्थ परिवार इस स्थान को छोड़ कर बलिया जा बसे थे। कुछ परिवारों को बलिया भी रास नहीं आया, इसलिये वे वहां से बिहार के जिला सारन के एक गांव जीरादेई में जा बसे।
इन परिवारों में कुछ शिक्षित लोग भी थे। इन्हीं परिवारों में राजेन्द्र प्रसाद के पूर्वजों का भी परिवार भी था। जीरादेई के पास ही एक छोटी सी रियासत थी- हथुआ। राजेन्द्र बाबू के दादा पढ़े-लिखे थे, उन्हें हथुआ रियासत की दीवानी मिल गई। 25-30 साल तक वे उस रियासत के दीवान रहे। उन्होंने स्वयं भी कुछ जमीन खरीद ली थी।राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय इस जमींदारी की देखभाल करते थे। राजेन्द्र बाबू के चाचा जगदेव सहाय भी घर पर रहकर जमींदारी का काम देखते थे। अपने पांच भाई-बहनों में वे सबसे छोटे थे, इसलिए पूरे परिवार में सबके प्यारे थे। उनके चाचा की कोई संतान नहीं थी। वह राजेन्द्र प्रसाद को अपने पुत्र जैसा समझते थे। दादा, पिता और चाचा के लाड़-प्यार में ही राजेन्द्र बाबू का पालन-पोषण हुआ।बचपन में राजेन्द्र बाबू जल्दी सो जाते थे और सुबह जल्दी उठ जाते थे। उठते ही मां को भी जगा दिया करते और फिर उन्हें सोने ही नहीं देते थे। अतएव मां भी उन्हें प्रभाती के साथ-साथ रामायण महाभारत की कहानियां और भजन कीर्तन आदि रोजाना सुनाती थीं।
राजेन्द्र बाबू के पिता महादेव सहाय संस्कृत एवं फारसी के विद्वान थे एवं उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धर्मपरायण महिला थीं। पांच वर्ष की उम्र में ही राजेन्द्र बाबू ने एक मौलवी साहब से फारसी में शिक्षा शुरू की। उसके बाद वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए छपरा के जिला स्कूल गए। राजेन्द्र ने 1902 में उन्होंने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। उनकी प्रतिभा ने गोपाल कृष्ण गोखले तथा बिहार-विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा जैसे विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 1915 में उन्होंने स्वर्ण पद के साथ विधि पारास्नातक (एलएलएम) की परीक्षा पास की और बाद में लॉ के क्षेत्र में ही उन्होंने डॉक्ट्रेट की उपाधि भी हासिल की। राजेन्द्र बाबू कानून की अपनी पढ़ाई का अभ्यास भागलपुर, बिहार में किया करते थे।
1962 में अवकाश प्राप्त करने पर राष्ट्र ने उन्हें ‘भारत रत्न’ की सर्वश्रेष्ठ उपाधि से सम्मानित किया। अपने जीवन के आखिरी महीने बिताने के लिए उन्होंने पटना के निकट सदाकत आश्रम को चुना। यहां पर 28 फ़रवरी 1963 में उनकी मौत हो गई।