बचपन से हमें सिखाया जाता रहा है कि एकता में बहुत ताकत है। इसकी मिसाल स्कूल में उस कहानी से दी जाती थी, जिसमें एक बाप अपने बेटों को लकड़ी का गट्ठर देकर उसे तोड़ने को कहता है, बहुत ज़ोर लगाने पर भी उसके बेटे उस गट्ठर को तोड़ नही पाते। तब वह बाप गट्ठर खोल कर लकड़ी अलग-अलग देता है और फिर बच्चे उन लकड़ियों को तोड़ देते हैं। इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती थी कि एकता में बहुत ताकत है। कहने को तो यह कहानी पारिवारिका एकता की पृष्ठभूमी पर थी। लेकिन एक देश की जनता को परिवार के तौर पर देखा जाए तो भी यह कहानी सटीक बैठती है। अंग्रेजों ने लगभग 200 वर्षों तक हिंदुस्तान पर राज किया। इसका मुख्य कारण अंग्रेजों का फूट डालो और राज करो की नीति थी। जिसे हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों ने भाँपा तथा हिन्दू-मुस्लिम-सिख सभी ने कंधे से कंधा मिला कर देश को आजादी दिलाई।
हम बचपन से सुनते हैं आये हैं, हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई आपस में सब भाई-भाई। लेकिन आज देश के नौजवानों को बताया जा रहा है कि मुसलमान आतंकवादी हैं और सिख खालिस्तानी हैं, छात्र देशद्रोही हैं। देशवासियों के दिलों में नफ़रत की ऐसी दीवार खड़ी जा रही है कि जो पड़ोसी कभी एक थाली में खाना खाते थे,आज वो एक दूसरे को शक भरी निगाह से देखते हैं। भाईचारे के जिस विश्वास को हम बचपन से देखते आये थे,वो आज समाप्त हो गया है। बचपन का पड़ोसी अब्दुल भाई अब हमें अब्दुल पंचर वाला दिखाई देता है। जिस अब्दुल से हम परेशानी में मदद लेने से नही हिचकते थे,अब वही अब्दुल हमें देश की सबसे बड़ी समस्या लगता है। ऐसा लगता है जैसे देश की सब समस्यओं की जड़ अब्दुल है। अब्दुल को देश से भगाते ही देश ख़ुशहाल हो जायेगा।
अचानक आई इस नफ़रत की वजह वही संगठन हैं जो अंग्रेज़ों के समय अंग्रेजों के साथ थे। फ़र्क़ सिर्फ इतना है कि आज वो सत्ता पर क़ाबिज़ होकर नफ़रत का पाठ पढ़ा रहे हैं। हमारे देश की पहचान और शान इसकी धर्मनिरपेक्षता है। यहाँ जैसी गंगा-जमुनी तहज़ीब किसी और देश में दिखाई नही देती। लेकिन अब इस धर्मनिरपेक्षता और गंगा-जमुनी को ग्रहण लगाने की तैयारी की जा रही है। एआईसीटीई ने देश भर में इंजीनियरिंग का सिलेबस ही बदल दिया है। नये बदलाव के मुताबिक सभी बीटेक छात्रों को अब वेद-पुराण पढ़ना अनिवार्य होगा। इतना ही नही, राजस्थान में 12वीं की राजनीति विज्ञान में इस्लामी आतंकवाद की व्याख्या करके मुसलमानों के लिए दिलों में नफ़रत पैदा की जा रही है। कक्षा 12 के छात्र जब देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी के धर्म के नाम के साथ आतंकवाद शब्द जोड़ कर पढ़ेंगे तो वो किस प्रकार अपने आसपास के मुसलमानों से प्रेमभाव रख सकेंगे? जो बच्चे मुहम्मद साहब एवं गुरु नानक की जीवनी पढ़ कर हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई का नारा लगाते थे,वह अब इस्लामी आतंकवाद को पढ़ कर दिलों में नफ़रत का ज़हर उतारेंगे।
क्या यह नफ़रत की इमारत को बुलन्द करने का रास्ता नही है? क्या कोई देश अपने ही देशवासियों के ख़िलाफ़ नफरत से फल फूल सकता है? अगर ये ही हालात रहे तो इसके परिणाम कितने भयानक होंगे इसका अंदाज़ा शायद अभी इन्हें नहीं है, बस सत्ता के लालच में आज ये घिनोना काम कर रहे हैं जिससे देश की जड़ें कमज़ोर होंगी। अब ऐसा लगने लगा है कि हमारे देश को विदेशी दुश्मनों से नहीं बल्कि इन नफरतजीवियों से खतरा है। यह नफरतजीवी इस्लामी आतंकवाद/खालिस्तान के नाम का सहारा लेकर देशवासियों को आपस में लड़ा कर सत्ता का सुख भोग रहे हैं।
एक समुदाय विशेष के साथ शुरू हुआ नफ़रत का यह सिलसिला सत्ता की ज़रूरतों के अनुसार बढ़ता ही जा रहा है। जिस देश में जय जवान-जय किसान के नारे लगते थे, आज उसी देश में किसानों को गद्दार बताया जा रहा है। जिस किसान को अन्नदाता कह कर सम्मान दिया जाता था, आज उसे खेत का मजदूर बता कर अपमानित किया जा रहा है। देश का किसान दिल्ली आकर मूत्र पीने और आत्महत्या को विवश है। लेकिन सत्ता के लोलुप नेताओं पर कोई असर नही पड़ रहा। क्योंकि उन्होंने लड़ने के हमें और आप को छोड़ा हुआ है। हम और उनके हर ग़लत कदम को सही साबित करने में लगे हुये हैं। यह देश की विडम्बना है कि जो कुछ कर सकते हैं, उन्हें कुछ दिख नही रहा और जिन्हें सब दिख रहा है वो कुछ कर नही सकते। वो बेबसी से देश को नफ़रत की आग में जलते हुये देख रहे हैं।
अभी भी समय है कि हम यह समझ लें नफ़रत की बुनियाद पर देश की तरक्की की इमारत कभी खड़ी नही हो सकती। बल्कि नफ़रत की आँधी देश की जड़ों को खोखला करके बर्बादी का रास्ता खोल रही है। जिसका सामना आने वाले समय में हमारी नस्लों को ही करना है।
शबीना खान
सामाजिक कार्यकर्ता सह हमारी आवाज़ फाउंडेशन, दिल्ली की संस्थापक,