
प्रधान संपादक
एक गांव में एक किसान रहता था । उसका सपना था कि उसका इकलौता पुत्र पढ़- लिखकर बड़ा आदमी बने। उसने अपने पुत्र का दाखिला उसी स्कूल में कराया जिसमें उस इलाके के विधायक,चौधरी और मुखिया का बेटा भी दाखिल था। आखिर वह दिन भी आ गया जिसका किसान को बेसब्री से इंतजार था। बोर्ड एग्जाम का रिजल्ट आ चुका था । किसान ने अपने लाडले को देखते ही पूछा – बेटा, रिजल्ट कैसा रहा ?

बेटा ने जवाब दिया – बाबू जी , विधायक जी का बेटा फेल कर गया ।
किसान ने उसकी बातों पर ध्यान दिए बगैर पूछा – ये तो बताओ तुम्हारा क्या हुआ?
बेटा ने कहा – बाबू जी, चौधरी का बेटा भी फेल हो गया ।
किसान ने फिर पूछा – उसकी छोड़ो , अपनी बताओ ।
उसके बेटे ने बताया – बाबू जी! मुखिया जी का बेटा भी पास नहीं हो सका ।
अब किसान का धैर्य जवाब दे गया । उसने डपटते हुए पूछा – मैं तुम्हारी पूछ रहा हूं। तुम्हारा रिजल्ट कैसा रहा ?
बेटे ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया – बाबू जी! जब विधायक, चौधरी और मुखिया का बेटा फेल हो गया तो आप किस खेत की मूली हैं ? आप उससे बड़े थोड़ी न हैं जो मैं पास हो जाता ।

बिहार के नेताओं का भी चरित्र किसान के बेटे जैसा हो गया है, जिसे किसान रूपी मतदाताओं को धोखा देने में जरा भी लाज- शर्म नहीं आ रहा है । चुनावी संदर्भ में प्रत्येक पक्ष से जिस तरह की बयानबाजी हो रही है उससे मतदाताओं में निराशा है । सत्तापक्ष “पंद्रह साल बनाम पंद्रह साल” के मुद्दे के साथ चुनाव में उतर चुका है । इसके साथ ही राजद को घेरने की नियत से लालू यादव के कथित तीसरे पुत्र तरूण को ढूंढ लाया है । सत्तापक्ष की यह स्ट्रेटजी बिहार के बुद्धिजीवी वर्ग को नागवार गुजर रहा है । लालू – राबड़ी के पंद्रह साल के कथित जंगलराज को वे भी कोस रहे हैं, जो खुद उस राज्य के तबतक मजबूत सिपहसालार थे, जबतक के उस राज्य का अवसान नहीं हो गया । ऐसे लोगों में रामकृपाल यादव, श्याम रजक सहित भाजपा-जदयू के कई नेता शामिल हैं। लालू राज 1990 से शुरु हुआ था और खुद नीतीश कुमार 1994 में समता पार्टी के गठन तक लालू के साथ थे। इसके अलावा जीतन राम मांझी को अपदस्थ कर 21 फरवरी 2015 से 19 नवंबर 2015 तक लालू के समर्थन से ही मुख्यमंत्री बने। श्री कुमार ने लालू के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया और 20 नवंबर 2015 से लेकर 26 जुलाई 2017 तक मुख्यमंत्री रहे। इसलिए कह सकते हैं कि तथाकथित जंगलराज के हम्माम में जदयू भी जमकर नहाता रहा है ।

बहरहाल एक पंक्ति में कहा जाए तो निःसंदेह लालू यादव का पंद्रह साल बुरा दौर था। उस दौरान भ्रष्टाचार की खेत में एक नहीं अनेक तरूण पैदा लिए होंगे । लालू प्रसाद के उस पाप की सजा उन्हें मिल चुकी है । कानून ने उन्हें अंजाम तक पहुंचा चुका है और जनता ने उसे सत्ता दूर धकेल छोड़ा है। बावजूद इसके सत्तापक्ष अब भी उसी पंद्रह साल से अपने पंद्रह साल की तुलना कर चुनाव जीतना चाहती। स्पष्ट है सत्तापक्ष के पास आगे की कोई कार्ययोजना नहीं है । रही बात विपक्ष की तो वह भी सत्तापक्ष के कुचक्र में फंसता नज़र आ रहा है ।
सनद रहे कि वैश्विक महामारी कोरोना के बहाने बिहार की असली सूरत नज़र आ चुकी है । देश के विभिन्न राज्यों में फैले लाखों प्रवासी बिहारी मजदूरों की दुर्दशा ने नीतीश कुमार के सुशासन की बखिया उधेड़ डाला था । इस मुद्दे को तेजस्वी समेत तमाम विपक्ष ने जिस प्रकार लपका था, वह आगामी चुनाव में गुल खिला सकता था। लेकिन असफोस, ऐन वक्त पर सत्तापक्ष लालू यादव के तीसरे बेटे तरूण को ढूंढ निकाला । फिर क्या था, तेजस्वी समेत पूरा विपक्ष नीतीश कुमार के अर्चना व उपासना एक्सप्रेस के पीछे पड़ गया। इस कुचक्र में जनता के असल मुद्दे गौन हो गए ।

साफ लहजे में कहा जाय तो आसन्न विधानसभा चुनाव में भी जनसरोकार के मुद्दे पर पारंपरिक राजनीति हावी हो चुका है जिसमें व्यक्तिगत आरोप – प्रत्यारोप का बोलबाला है । शब्दों की मर्यादा और सार्वजनिक जीवन की गरिमा इस कदर गिर गई है तो पूछिए मत । ऐसे माहौल में प्रशांत किशोर जैसे न्यू ब्रांड राजनेता में उम्मीद की किरण नज़र आती है । वे तथ्यों के आधार जो मुद्दे लगातार उठा रहे हैं वह वाकई काबिल-ए-गौर है ।
बकौल प्रशांत किशोर यह सच है कि नीतीश कुमार के कार्यकाल में सड़क और बिजली का विकास तो हुआ लेकिन इससे बिहार की सेहत में कोई खास फर्क नहीं आया है । उन्होंने विभिन्न मीडिया हाउस से बात करते हुए कहा है कि नीतीश कुमार ने 2005 में लालू प्रसाद से सत्ता छीना था । उस वक्त बिहार का स्थान 22वां था और आज 2020 में भी 22 वें स्थान पर ही बना हुआ है। श्री किशोर ने विकास मानक के विभिन्न इंडेक्स के हवाले से बताया है कि 2005 में बिहार शिक्षा में सबसे नीचले पायदान पर था और 2020 में भी नीति आयोग की रिपोर्ट में सबसे नीचे बना हुआ है । 2005 में बिहार में सबसे अशिक्षित, विकास के मामले में सबसे पिछड़ा, स्वास्थ्य क्षेत्र में सबसे नीचे तथा सर्वाधिक गरीबी वाला राज्य था और आज 2020 में भी राष्ट्रीय इंडेक्स में यही स्थान बरकरार है। उन्होंने यह भी बताया कि 2005 में बिहार में प्रतिव्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का एक तिहाई था, राष्ट्रीय औसत से महज एक चौथाई बिजली खपत होती है तथा प्रति एक लाख की आबादी पर महज 20 लोगों के पास मोटर गाड़ियां थी और आज भी यही स्थिति बनी हुई है ।
