

स्थानीय संपादक
पटना/बिहार : लखनऊ में जन्म हुआ परवरिश व शिक्षा- दीक्षा भी लखनऊ में ही हुई। लरुटो कॉन्वेंट से मैंने 12 वीं तक की पढ़ाई की फिर लखनऊ में ही आई. टी. कॉलेज से साइंस में ग्रेजुएशन किया। मेरी शादी 1991 में हुई।
शादी के बाद मैं बिहार आ गयी क्यूंकि मेरे पति सरकारी जॉब में हैं और नौकरी के संदर्भ में ही उनको बिहार आना पड़ा। सबसे पहले उनकी पोस्टिंग बिहार के साहिबगंज जिले में हुई। वहीँ से मैंने अपने जीवन की बिहार में शुरुआत की। फिर बिहार ही मेरी कर्मभूमि हो गयी, यहाँ रहते हुए मुझे 28-29 साल हो गए। मैं यह नहीं जानती कि मैं बिहारवासी हूँ कि मैं यू.पी. की हूँ। क्यूंकि मैं अपने काम की वजह से बिहार को रिप्रजेंट करती हूँ इसलिए खुद को बिहारी मानती हूँ। लिखने-पढ़ने का मेरा शुरू से शौक रहा। अमूमन शादी के बाद एक कामकाजी महिला के जीवन में एक ठहराव आ जाता है क्यूंकि वह कोई भी काम करती है तो शादी के बाद उसके ऊपर बहुत सी जिम्मेदारियां आ जाती हैं जो उसके लिए बिल्कुल नयी होती हैं।

ससुराल में आपके बहुत सारे ऐसे कार्य होते हैं जो नयी बहू के तौर पर करने पड़ते हैं, उन जिम्मेदारियों को समेटना पड़ता है। शादी के तुरंत बाद मैं माँ बनी और मुझे एहसास हुआ कि बच्चे की परवरिश अपने आप में बहुत ही कठिन कार्य है। इस दरम्यान मेरी आगे की पढ़ाई-लिखाई सब रुक गयी और 10 सालों तक मैं कुछ भी नहीं कर पाई। इसी क्रम में करीब 1997 में मैंने जूलॉजी में पीजी किया, तब तक मेरी कविता-कहानियां पत्र-पत्रिकाओं में छपनी शुरू हो गयी थीं। यहाँ मेरे व पति के अलावा ससुराल का कोई नहीं था, मुझे अकेला ही सब संभालना पड़ा और बच्चों को सँभालने में थोड़ी दिक्कत हुई जिसकी वजह से मुझे हर प्रकार से पढ़ाई में, लेखन में, सामाजिक कार्यों में थोड़ा रुक जाना पड़ा। तब मेरी जो एक पर्स्नालिटी है वो कहीं ना कहीं सिर्फ घर की चार दीवारी के अंदर जिम्मेदारियों तले दबकर रह गयी। सब समझते हैं कि शादी का अर्थ हो गया कि अब आप एक बहुत परिपक्व व्यक्ति हो गएँ, तो उसमे अपने जीवन से जुड़े हुए लोगों के प्रति आपकी नैतिकता बढ़ जाती है।

शादी बाद बिहार के एक छोटे से जिले साहिबगंज में मेरा एक साल व्यतीत हुआ। कहाँ मैं लखनऊ में थी और कहाँ मैं साहिबगंज में आ गयी। तब पति के ऊपर कार्य की इतनी ज्यादा जिम्मेदारियां थीं कि वो घर में समय नहीं दे पाते थें। हमलोग एक कमरे के घर में रहते थें। उसी में हमारा किचन भी चलता था। एक तरीके से मेरा सारा दिन घर के अंदर ही बीत जाता था। तब मैंने सपने देखना ही छोड़ दिया था। आँखों के अंदर भी वो तैरते नहीं थें क्यूंकि लगता था कि इतना काम बाकि है, इतना कुछ करना बाकि है कि पहले ये तो खत्म करें। धीरे-धीरे करके मैंने आगे की पढ़ाई पूरी की। चूँकि पढ़ने का शौक शुरू से रहा है इसलिए स्वध्याय मैं आज भी कर रही हूँ. मुझे उम्र के इस पड़ाव पर भी पढ़ने का, डिग्री लेने का, निरंतर आगे बढ़ने का जुनून है।
