देश के विभिन्न प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में कभी पुलिसिया ताडंव तो कभी नकाबपोश गुंडों के जानलेवा हमले की खबर हमारी सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन के लिए भले ही सामान्य घटनाक्रम हों परंतु जिसे भी देश की प्रतिष्ठा और भविष्य के नौनिहालों की तनिक भी चिंता होगी उनके लिए यह खबर असहज,चिंताजनक और दुर्भाग्यपूर्ण है।
गत दिनों देश की राजधानी दिल्ली स्थित प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय जेएनयू और जामिया मिल्लिया इस्लामिया से जिस तरह के हिंसक घटना की खबरें सामने आई हैं उससे न सिर्फ विश्वविद्यालय प्रशासन अपितु दिल्ली पुलिस को भी सवालों के कटघरे में खड़े करती है। रविवार को जेएनयू में हुई हिंसक घटना को छात्रों के बीच हुए मारपीट की तरह देखना मूर्खता होगी हालांकि कुछ लोग इसे ऐसा ही रूप देने का प्रयत्न कर रहे हैं। सरकार की कुनीतियों और विवादित फैसलों के विरुद्ध देश भर के विश्वविद्यालयों में छात्रों के व्यापक प्रदर्शन से डरी सहमी यह सरकार अब तानाशाही पर उतर आई है। हिंसक टकराव की स्थिति उत्पन्न कर वह छात्रों के अंदर भय व्याप्त करने का कुत्सित प्रयास कर रही है ताकि डरे सहमे छात्र-छात्राएँ अपनी पढ़ाई छोड़कर घर लौट जाएँ और सरकार के कुनीतियों व तानाशाही के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद न कर सके।
सत्तारूढ़ दल मूर्खों की एक बड़ी टीम तैयार करना चाहती है जो उनके हर फैसले को आँख मूँद कर न सिर्फ सहर्ष स्वीकार कर ले अपितु लोगों को भी हाँ में हाँ मिलाने के लिए विवश करे। दुर्भाग्यपूर्ण है कि जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय के वीसी सरकार के समक्ष नतमस्तक हैं। सर्वविदित है कि इन सरकारी विश्वविद्यालयों में अधिकांशतः देश के गरीब,पिछड़े, दलित आदिवासियों अल्पसंख्यकों के बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण करने आते हैं। शिक्षा पर एक विशेष वर्ग का एकाधिकार स्थापित करने की घृणित मांसिकता न सिर्फ शर्मनाक है ब्लकि हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों पर प्रहार भी है। हमें बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के ध्येय “शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो” के साथ आगे बढ़ते रहना होगा।
खबरों की मानें तो पहले जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पुलिस का तांडव और अब जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सैकड़ों नकाबपोश गुंडों का घुस आना, प्रोफेसर पर हमले, जेएनयूएसयू अध्यक्षा के सर फोड़ने और दर्जनों छात्रों को घायल करने और घंटों तक आतंक फैलाने के बाद सुरक्षित लौट जाना प्रशासन की विफलता को साफ साफ जाहिर करता है, जिससे किसी को इंकार नहीं है।
कहते हैं कि देश की राजधानी में स्वतंत्र सुरक्षा व्यवस्था वाले एक प्रतिष्ठित केंद्रीय विश्वविद्यालय में जहाँ छात्रों के अलावा अन्य लोगों को भी औपचारिक पूछताछ और जाँच के बाद ही कैम्पस में प्रवेश की अनुमति मिलती है,भला ऐसी सख्त सुरक्षा के बावजूद लाठी,डंडे और लोहे के रड के साथ सैकड़ों गुंडे किस तरह अचानक परिसर के अंदर घुसे और घंटों तांडव मचाने के बाद सुरक्षित बाहर चले गए यह बात किसी के गले से नहीं उतर रही है।
यह तो ठीक है कि दिल्ली पुलिस जामिया प्रशासन की अनुमति के बगैर कैम्पस में घुसकर लाईब्रेरी में बैठे छात्रों पर हमले और तोड़फोड़ करने जैसी भूल को नहीं दोहराना चाहती थी और बाहरी हमले की सूचना के बाद भी जेएनयू प्रशासन की बिना अनुमति के कैम्पस में प्रवेश नहीं किया लेकिन यह भी आश्चर्यजनक है कि कैम्पस में उनके प्रवेश के बाद एक भी गुंडे पकड़े नहीं गए।खबर यह भी बता रही है कि विश्वविद्यालय के बाहर जब मीडिया कर्मी के साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा था,सामाजिक कार्यकर्ता व शिक्षाविद् के साथ कुछ लोग घक्का मुक्की कर रहे थे तब दिल्ली पुलिस मूकदर्शक बनी रही। ऐसे संवेदनशील मौके पर भी क्या पुलिस की यही जिम्मेदारी बनती है?
विचारणीय है कि यूनिवर्सिटी की सुरक्षा में लगे सुरक्षाकर्मी तब क्या कर रहे थे जब कैम्पस के भीतर हिंसा हो रही थी? दुर्भाग्यपूर्ण खबर यह भी है कि घायल छात्रों को अस्पताल पहूँचाने वाली एम्बुलेंस को विश्वविद्यालय परिसर में जाने नहीं दिया जा रहा था, ऐसे तत्वों के खिलाफ पुलिस ने कोई एक्शन क्यों नहीं लिया? हालांकि इन सवालों के जवाब तो न्यायिक जांच के बाद ही सामने आएगा। छात्र संगठनों का गुट एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हैं ऐसे में निर्णय तक पहूँचने के लिए उन्हें तर्कों की कसौटी पर परखना भी महत्वपूर्ण हो जाता है।
सोशल मीडिया पर अमर्यादित भाषा शैली और सभाओं में नेताओं के “सबक सिखाने” जैसे उत्तेजना भरे भाषण भी सौहार्द पर कम चोट नहीं करते।दिल्ली पुलिस को अपनी गरिमा का ख्याल रखना जरूरी है क्योंकि दिल्ली की सुरक्षा उनके हाथों में है।सरकार को अपनी प्रतिष्ठा अक्षुण्ण रखने के लिए शीघ्र ही न्यायिक जांच करवानी चाहिए ताकि इस षड्यंत्र का सच सबके सामने आए।