अनेकता में एकता का पर्याय भारत अपनी इंद्रधनुषी सांस्कृतिक पहचान रखता है। इस मुल्क का भौगोलिक क्षेत्र वृहद होने के साथ- साथ काफी समुन्नत भी है। धर्म ,जाति और संस्कृति की विविधता के कारण यहां के पर्व-त्योहार भी राष्ट्र के अलग – अलग भागों में समान रूप नहीं रखते। अलग- अलग रूपों से सजे पर्वों के प्रकाश पुंज भारतीय जीवनशैली को अंदर से उल्लासमय और आनंद से परिपूर्ण बनाता है।
शायद यही कारण है की विभिन्न धर्मों का संगम यह मुल्क वार्षिक पर्व मनाने के लिए विश्व पटल पर अपनी अलग पहचान रखता है। यहां त्योहारों से मेंलों का भी अटूट सम्बन्ध है। मूलतः मेला हमें आनंद और श्रद्धा का अवसर प्रदान करता है। इसका अपना सामाजिक औचित्य भी है। यह कहना गलत न होगा की मेले सामाजिक समृद्धि और एकजुटता की नींव होने के अतिरिक्त समाज की आर्थिक उन्नति का स्रोत भी है। मेलों का आयोजन प्राय फसलों की कटाई के बाद ही होता है। मेलों का मूल उद्देश्य बहुपयोगी सामानों व पशुओं की खरीद – बिक्री के साथ जनजातीय क्षेत्रों में सामूहिक विवाहों के आयोजन से जुड़ा हुआ है। इसके अतिरिक्त भी कई ऐसे मेलें भी हैं जो विशेष समय व काल में लगते हैं और उनका अपना खास महत्व भी होता है।
कुल मिलाकर भारत में मनाए जाने वाले त्योहारों और मेलों की समानता यह भी है की यह किसी न किसी रूप में धर्म और संस्कृति से जुड़े से लगते हैं। विशेष प्रकार की पूजा, उपासना, मनौतियां आदि इन मेलों का विशेष अंग होता है। वहीं कुछ मेले यथा सूरजकुंड का कला उत्सव और खजुराहों का उत्सव आदि हमारी सांस्कृतिक और कलात्मक भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। अगर यह कहें की त्योहार और मेले के द्वारा ही भारतीय संस्कृति खुद को परिभाषित करती है तो गलत न होगा। हिन्दू, मुस्लिम, सीख, ईसाई के पर्वों व मेलों के अंदर करुणा, मैत्री, दया और उदारता का अद्भुत संगम का दीदार होता है।हिमाचल से सुदूर दक्षिण , असम से महाराष्ट्र तक अनवरत व्रत, पर्वों, मेलों की जो परम्परा है शायद इसी आलोक में भारत को पर्वों का देश भी कहा जाता है। पर्व और मेले सामाजिक सौहार्द को बढ़ाते हुए आपसी भाईचारे को मजबूत करते हैं। देश की सांस्कृतिक अखंडता को जीवंत बनाए रखते हैं।कलाकारों को अपने कौशल को प्रदर्शित करने का मौका भी देते हैं।इससे अर्थव्यवस्था भी मजबूत होती है। वहीं पर्यावरण की स्वच्छता को बल मिलता है। कुल मिलाकर त्योहार और मेले हमारे जीवन के सामाजिक,आर्थिक,सांस्कृतिक व कलात्मक पहचान को सजाते व संवारते रहते हैं,जिससे हर पीड़ा में जीवन की तलाश सम्भव हो जाती है। इन सभी खूबसूरत पहलुओं को समेटे हमारा यह खूबसूरत मुल्क बदलते दौर में भी विश्व पटल पर अपनी अमिट और मनमोहक छवि के लिए जाना जाता रहा है। लेकिन वर्तमान परिपेक्ष्य में लगातार घट रही कुछ घटनाएं चिंताजनक है और हमारी पहचान पर खतरा भी । जाति -धर्म के नाम पर जान से मारना, बात बेबात जात – धर्म की बात छेड़ना, ताना देना, मेलों और पर्वों में विभिन्न रूपों में अनावश्यक हस्तक्षेप करना दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है। गलत इतिहास प्रस्तुत कर वर्तमान पीढ़ी को लगातार गुमराह करने की व्यापक कोशिश जारी है । आज यह समझने की जरूरत है की जितना यह देश हिन्दुओं का है उतना ही मुसलमानों, सीख और ईसाईयों का भी। इतिहास के पन्ने इस बात के अमिट गवाही देते हैं की जितना इस देश में राणा प्रताप की भूमिका है उतना ही गुरु गोविन्द सिंह, मदर टेरेसा और मौलाना अबुल कलाम आजाद सहित सभी का। हम एकजुट हों, अपनी पहचान को संग्रहित करें, नकारात्मक चीज़ों को नकारें
पर्व ,त्योहार, मेलों के वास्तविक स्वरूप को जीवंत करें न की दिखावे का हिस्सा बने। जो दूरी, हिंसा और संकुचित सोच को जन्म दे। हमारी पहचान ये है की खून कि जरूरत पड़ने पर रोजा रखा मुसलमान रोजा से ज्यादा रक्तदान को तरजीह देता है। हिन्दुओं के पर्व में मुसलमान और मुसलमान के पर्व में हिन्दू गले लगाते हैं। शायद सबको पता न हो हिन्दुओं के पूजा की चुनरी, पूजा के गीत, आजादी के आंदोलनों के क्रांतिकारी नारे किससे जुड़े हैं ? एक ओर जहां मुसलमानों के सहारे हिन्दुओं की अमरनाथ यात्रा पूरी होती है, वहीं दूसरी ओर मुसलमानों के रोजा इफ्तार का हिन्दुओं द्वारा आयोजन हमारी संस्कृति को नई शमां देता है। जरूरत पड़ने पर देश के लिए सीख, ईसाई सब तत्पर रहते हैं। हमें ऐसी पहचान को बनाए रखने की जरूरत है। अगर कोई इसे तोड़ने की साज़िश या कोशिश करे तो उसका मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए । चाहे वो किसी कौम का क्यों न हो । सजा ऐसी हो की दुबारा ऐसा सोचने वाले की रूह भी कांप जाए। क्योंकि हमें हमारा मुल्क और इसकी पहचान पसंद है ।
आज एक बार फिर जरूरत है की हम अपनी नींव को मजबूत करें और उसकी मजबूती पर आंच न आने दें।भारतीय संस्कृति द्वारा प्रतिपादित ‘ वसुधैव कुटुंबकम् ‘ की अवधारणा हमारी पहचान बने यही कामना है ।