अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर अतिथि संपादक प्रसन्ना सिंह “राठौर” की विशेष प्रस्तुति

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प्रसन्ना सिंह “राठौर”
अतिथि संपादक

नारी – उत्थान को लेकर सामाजिक संस्थानों द्वारा प्रस्तावों की लंबी कतार, संविधान के अन्तर्गत कई प्रावधानों की घोषणाएं, वर्षों से चल रहे आंदोलन नारी के प्रति समाज की आम अवधारणा को बदलने में आज भी सफल नहीं हैं। दहेज के नाम पर हत्याएं, आत्म हत्याएं, विभिन्न स्तरों की प्रताड़नाओं के समाचार प्राय पढ़ने और सुनने को मिलते हैं।

यूं तो कहने को संविधान ने नारी को समान अधिकार दिया, प्रोत्साहन हेतु आरक्षण भी दी लेकिन इन सब के बाद भी हालात यही बयां करती है कि नारी आज भी अपनी पहचान को संघर्षरत है। ये बात तुर्रा है की स्मृति काल से यह कहा जाता रहा है कि जहां नारी की पूजा होती है वहां देवताओं का वास होता है। जर्मनी के दार्शनिक गेटे ने यहां तक कहा की अपना घर और अच्छी नारी सवर्ण और मुक्ता तुल्य है। नारी यानी महिला का शाब्दिक अर्थ पूज्य अथवा श्रेष्ठ होता है। वेद पुराणों में नारी के सम्मान में काफी कसीदे पढ़े गए हैं। एक बार अपने संबोधन में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि नारी का उत्थान कोई शौक नहीं बल्कि एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है ताकि राष्ट्र भौतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप से अधिक संतोषजनक विकास की ओर अग्रसर हो सके।

इस कथन को धरातल पर लाने के लिए यह जरूरी है कि नारी समाज अपने स्वरूप को पहचाने और अपनी पहचान और मार्ग खुद प्रस्तुत कर अपनी पटकथा भी लिखे। अन्यथा वर्तमान के साथ भविष्य में भी नारी को पुरुष प्रधान समाज के हाथों की कठपुतली से ज्यादे की पहचान मिलनी संभव नहीं। सच तो यह है कि जिस प्रकार धुरी के बिना पहियों की गतिशीलता ही नहीं उसके औचित्य पर भी सवाल खड़े होते हैं, ठीक उसी प्रकार नारी रूपी धुरी के बिना परिवार और समाज के गतिशीलता की कल्पना नहीं की जा सकती। आज के वर्तमान सन्दर्भ के अध्ययन से तो ऐसा प्रतीत होता है कि पग – पग पर प्रतिबन्ध, क्षण, क्षण में तिरस्कार पाना ही शायद नारी का पर्याय हो गया है। नारी सृजन की मूर्ति होती है । कोई समाज कितना समृद्ध है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जाता है कि वहां औरतों का स्थान क्या है?

नारी समाज के सफर का सच यही है कि इसके साथ कभी सफल न्याय नहीं हुआ विश्व के प्राय मुल्कों में लंबे संघर्षों के उपरांत इन्हे सामाजिक, राजनीतिक शक्तियां प्रदान की गई वो भी शतप्रतिशत नहीं। विश्व शक्ति अमेरिका नारी को साथ में लेकर चलने की बात करता है लेकिन अभी तक एक भी महिला राष्ट्रपति नहीं दे सका। भारत ने एक साथ सबको भले ही अधिकार दिया लेकिन आज भी औरतें अपनी राजनीतिक सहित सामाजिक भागीदारी को लेकर संघर्षरत हैं। अन्य देशों की चर्चा ना ही करे तो बेहतर है क्योंकि सऊदी अरब, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया जैसे देशों में तो नारी नारकीय जीवन से बाहर निकलने को आतुर हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि हर क्षेत्र में नारी की विश्वसनीय भागीदारी बढ़ी है और निकट भविष्य में और संभावनाएं हैं। विभिन्न परीक्षाओं में पुरूषों के बनिस्पत महिलाएं ज्यादे रिजल्ट दे रहीं हैं।

दो नोबल पुरस्कार पाने का एकलौता गौरव रखने वाली मैडम क्यूरी, आयरन लेडी इंदिरा गांधी, सेरेना विलियम्स, आन सान सू की, एंजिला मार्केल, संतोष यादव, सरोजनी नायडू, किरन बेदी जैसी अनेकानेक आधी आबादी की मजबूत हस्ताक्षर पुरूषों को हर क्षेत्र में सिर्फ टक्कर ही नहीं दे रही बल्कि आगे भी निकल रही है। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है । समाज के उस धारणा को बदलने की जरूरत है कि औरतें हर काम नहीं कर सकती। अपने वर्ग के पिछड़ापन मिटाने हेतु प्रायः उस क्षेत्र के दूरदर्शी लोग आगे आते हैं जैसे बंगला देश के लिए बंगालियों ने संघर्ष किया वहीं व्यापारी, कर्मचारी, मजदूर यूनियन अपने वर्ग के उत्थान को लेकर योजना बनाते हुए संघर्षरत हैं। इसी प्रकार महिलाओं को भी आगे आने की जरूरत है। पुरूषों के सहारे जीने के बजाय उनके साथ कदमताल करने की बात हो। तभी नारी समाज का उत्थान होगा ,और जब नारी समाज का उत्थान होगा तभी देश का उत्थान होगा।

यह कहना गलत न होगा कि तोड़ के रख दो वो समाज जिसमें बंधी है नारी आज। अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर नारी समाज का वंदन और अभिनंदन कि वो अपने स्वरूप को अंगीकार करे और अपने ऊपर होने वाले पैदा होने के पहले से लेकर पूरे जीवन सफर के बीच के अत्याचारों का मुंहतोड़ जवाब दे और अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की सार्थकता को प्रमाणित करे। अन्यथा इसको लेकर होने वाले अलग अलग आयोजनों का कोई औचित्य नहीं सिवाय वक़्त जाया करने के।


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