बिहार : मुसलमानों के संदर्भ में किशनगंज में जदयू की हार के मायने

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यहिया सिद्दीकी
मुख्य संरक्षक
द रिपब्लिकन टाइम्स

बिहार के मुख्यमंत्री व जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार स्वतंत्र भारत के सबसे विश्वसनीय धर्मनिरपेक्ष राजनेता हैं । विपरीत विचारधारा के साथ होते हुए भी उन्होंने अपनी इस छवि को न सिर्फ बचाया है, बल्कि स्थापित भी किया है, किंतु लोकसभा चुनाव के बाद वे आहत होंगे । किशनगंज का चुनाव परिणाम उनका दिल तोड़ा होगा । वे भाजपा के आगे छोटे महसूस कर रहे होंगे, क्योंकि एनडीए बिहार की 40 में से सिर्फ एक सीट हारी वह भी जदयू के कोटे की सीट । जदयू के उस कोटे की सीट जिस पर नीतीश कुमार ने इकलौता मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा किया था, जिसे मुसलमानों ने हरा दिया ।

जदयू चाहे सभी सीट हार जाती लेकिन उसके लिए किशनगंज सीट जीतना जरूरी था । यह सीट मुसलमानों को उन्हें बतौर तोहफा देना चाहिए था । अफसोस मुसलमानों ने अपने सबसे बड़े हमदर्द का दिल तोड़ दिया । नमक का शरियत नहीं दिया । किशनगंज सीट पर जदयू का हक था । यह हक यूं ही नहीं था, बल्कि यह नीतीश कुमार के मेहनत की मजदूरी थी । नीतीश कुमार को मजदूरी इसलिए मिलनी चाहिए थी क्योंकि उन्होंने एनडीए में रहकर भागलपुर दंगे में मुसलमानों को मारकर उसकी लाशों पर आलू-गोभी रोपने वालों को सजा दिलवाने का दुस्साहस किया । दंगा पीड़ितों को मुआवजा मुहैया कराया । नीतीश कुमार ही हैं जिन्होंने एनडीए में रहकर भी केन्द्रीय मंत्री अश्विनी कुमार चौबे के बेटे को गिरफ्तार कर साम्प्रदायिक फन को कुचल डाला, गिरिराज को हडकाया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इलेक्शन कैंपेन के दौरान तथाकथित नारेबाजी से अपने ही अंदाज में रोका । और यह सब उन्होंने मुसलमानों की हिफाजत के लिए किया । बावजूद इसके मुसलमानों ने क्या किया?

फ़ाइल फोटो

बिहार के मुसलमानों को अपनी सोच ,अपने स्टैंड पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है । इतना तो तय है कि मुसलमान अपना नेतृत्व खुद खड़ा करने की हालत में नहीं है । ओवैसी को हैदराबाद तक सिमटे रहना इस बात का सबूत है । मुसलमानों को 2014 के आम चुनाव के जनादेश को भी समझना होगा। 2014 के जनादेश का सबसे बड़ा मैसेज यह था कि अब हिन्दुस्तान में मुसलमानों के बिना भी सरकारें बनाई जा सकती है । फिर भी नीतीश कुमार मुसलमानों के हक में डटकर खड़े रहे । 2019 के चुनाव के दौरान जब पूरा देश मोदी- मोदी चिल्ला रहा था, तब बिहार के दरभंगा में साझे मंच पर नीतीश कुमार ने मोदी के उन्मादपूर्ण नारे को नकार कर अपनी ताकत का एहसास कराया था । वे ऐसा दुस्साहस दलितों , पिछडों खासकर अल्पसंख्यकों के भरोसे कर सके थे । उन्होंने बिहार की सत्ता भाजपा के साथ संभालने के बावजूद मुसलमानों के लिए वह सब किया जो 1857 से लेकर आजतक कोई राजनेता नहीं कर सका। पंडित नेहरू से लेकर तेजस्वी यादव तक ने मुसलमानों को हिन्दुत्व से डराकर वोट लिया । लेकिन जब मुसलमानों के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनैतिक विकास की बात आई तो सबने ऊंट के मुंह में जीरा डालने का काम किया । सच्चर आयोग की रिपोर्ट धूल फांकती रही । बदलते परिवेश में कांग्रेस नेता एंटोनी कमिटी ने तो कांग्रेस को मुस्लिम तुष्टिकरण से परहेज करने की सलाह तक दे डाला। बिहार में लालू – राबड़ी राज में मुसलमान और उर्दू के हालात पर कहने सुनने के लिए कुछ है नहीं। ऐसे निराशाजनक दौर में नीतीश कुमार सही मायने में मुसलमानों की मसीहाई के लिए आ खड़े हुए । उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाते हुए भागलपुर दंगे पर ठोस इंसाफ किया । तमाम कब्रिस्तानों की घेराबंदी कराई।मदरसा बोर्ड को बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के जैसा दर्जा दिया। प्राइवेट मदरसा शिक्षकों को वित्तीय अनुदान दिय। दशकों मजदूरों से भी बदतर वेतन पाने वाले मदरसा शिक्षकों को सातवां वेतनमान का लाभ दिया। मदरसा के सर्टिफिकेट पर हजारों उर्दू शिक्षकों को बहाल किया । मौलाना मजहरूल हक अरबी फारसी विश्वविद्यालय की स्थापना कराया और नीतीश कुमार ने विशेष पहल कर किशनगंज में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा स्थापित कराया। मुस्लिम बच्चियों को स्वावलंबी बनाने केलिए हुनर कार्यक्रम की शुरुआत हुई । पिछड़े मुस्लिम बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए तालिमी मरकज चलाया जा रहा है । मुस्लिम बच्चों को प्रतियोगी परीक्षा के लिए मुफ्त कोचिंग दी जा रही है । सामान्य स्कूल – काॅलेज की तरह ही मदरसे के बच्चे को भी पोशाक, छात्रवृत्ति और स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड योजना का लाभ दिया जा रहा है । कदाचित् उक्त योजनाओं से बिहार के मुसलमानों की बहार है, क्योंकि बिहार में नीतीश कुमार है।

फ़ाइल फोटो

कुल जमा यह कि नीतीश कुमार ने बिहार के मुसलमानों को वह सब दिया जिसकी कल्पना खुद मुसलमानों ने भी नहीं किया था। लेकिन मुसलमानों ने नीतीश कुमार को बदले में दिया किशनगंज की हार । मुसलमानों के इस एहसानफरामोशी से सुदर्शन की कालजयी कहानी ” हार की जीत ” याद आ गई ।
कहानी में डाकू खड़ग सिंह ने बाबा भारती के प्रिय घोड़ा सुल्तान को अपाहिज बनकर छल से छीन लिया था । इस घटना के बाद बाबा भारती को अपना प्यारा घोड़ा हाथ से चले जाने का उतना दुख नहीं हुआ था, जितना दुख उन्हें खडग सिंह के अपाहिज बनकर छल करने पर हुआ था । उनको बस यही चिंता थी कि यदि लोग यह जान जाएंगे कि अपाहिज बनकर भी छल होने लगा है तो लोगों का अपाहिजों और दीन-दुखियों पर से विश्वास उठ जाएगा । इसलिए उन्होंने डाकू को रोक कर कहा था – ” इस घटना की चर्चा किसी से मत करना।” बाबा की यह बातें डाकू खडग सिंह को चुभ गई । उसने घोड़ा लौटा दिया । वह पापी होकर भी इंसानियत की रक्षा कर गया । लेकिन बिहार के मुसलमानों ने तो इस कहानी को ही उलट दिया।वह तो खडग सिंह से भी बदतर साबित हुआ । उन्होंने किशनगंज में जदयू को हराकर नीतीश कुमार ही नहीं बल्कि ऐसे तमाम सामाजिक और राजनैतिक मसीहा के त्याग, समर्पण और भरोसा का गला घोंट दिया जो सचमुच देश के मजलूमों की आवाज हैं। मुसलमानों ने नीतीश की मुहब्बत का सिला अच्छा नहीं दिया । किशनगंज में जदयू की हार ने मुस्लिम समुदाय की बौद्धिकता पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया है । मुस्लिम समाज अविश्वास के कटघरे में खड़ा है । मुसलमानों को अपनी रणनीति और राजनैतिक समझ की समीक्षा करनी चाहिए ।


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