हिंदी फिल्मो में तवायफ …

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अनूप ना. सिंह
स्थानीय संपादक

सही मायने में 1972 में प्रदर्शित फिल्म पाकीजा ने लोगों को तवायफ के बेवफा हुस्न के पीछे छुपी आत्मा की तड़प, प्रेम व समर्पण भाव से परिचित करवाया। मीना की मौत से करीब डेढ़ महीना पहले प्रदर्शित इस फिल्म में निर्देशक कमाल अमरोही ने तवायफ का घृणित जीवन जीने को विवश औरतों की समस्याओं का समाधान खोजने का भी प्रयास किया।

 फिल्म पाकीजा की कहानी पर मीना कुमारी और उनके पति कमाल अमरोही ने सन 1958 में काम करना शुरू किया, लेकिन पति-पत्नी के आपसी मतभेदों के कारण इस अमर कृति का जन्म 14 वर्ष बाद यानी 1972 में हुआ। फिल्म में तवायफ बनी मीना कुमारी के ढलते यौवन के बावजूद पाकीजा ने सफलता का आश्चर्यजनक इतिहास रचा। फिल्म की सफलता में यदि निर्देशक की सही पकड़, भव्य सैट और मधुर संगीत की अहम भूमिका रही तो इसमें कोई दो राय नहीं कि मीना के अभिनय का सम्मोहन भी दर्शकों को बार-बार सिनेमा घर तक खींच लाया। इसे भाग्य की विडंबना कहें या मात्र संयोग कि अपनी पहली सफल फिल्म बैजू बावरा में बैजू की प्रेरणा बनी गौरी यानी मीना कुमारी के अभिनय व जीवन सफर का अंत एक ऐसे किरदार के साथ हुआ जिसके लिए आदर्श व प्रेरणा जैसे शब्दों का कोई महत्व नहीं होता।
लगभग एक दशक बाद 1981 में उर्दू उपन्यासकार रुसवा के प्रसिद्ध उपन्यास उमराव जान से प्रेरित होकर मुजफ्फर अली ने फिल्म उमराव जान का निर्माण किया। इस फिल्म में तवायफ की भूमिका निभाने वाली रेखा ने हालांकि इससे पहले और बाद में भी मुकद्दर का सिकंदर, प्यार की जीत, उत्सव, दीदार-ए-यार और जाल जैसी फिल्मों में तवायफ की भूमिका निभाई लेकिन उमराव जान के किरदार में रेखा के हुस्न व अभिनय ने जो जौहर दिखाए उस करिश्मे के फिर दोहराने में रेखा भी असफल रही। इस फिल्म के लिए रेखा को सर्वश्रष्ठ अभिनेत्री के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
गीत-संगीत व अभिनय के मामले में भले ही पाकीजा और उमराव जान फिल्मों ने एक सा इतिहास रखा हो लेकिन इन दोनों ही फिल्मों में एक बहुत बड़ा अंतर था। कमाल अमरोही की पाकीजा और मुजफ्फर अली की उमराव जान में भी तवायफ के मन में छिपा प्रेम, समर्पण व एक आम औरत की तरह घर बसाने की अतृप्त इच्छा का ही फिल्मांकन किया गया लेकिन पाकीजा में जहां समाज के इस तिरस्कृत वर्ग की समस्याओं का पूर्ण विराम लग गया तो अपनी जिंदगी में एक बाद एक आए पुरुषों में वफा, व सच्चा प्यार तलाशती उमराव जान की कहानी को एक प्रश्नचिह्न लगाकर समाप्त कर दिया गया। इन फिल्मों को देखकर मन में कई प्रश्न उठते हैं कि दोनों ही फिल्में बड़ी संख्या में लोगों को सिनेमा घर तक खींच लाने में सफल रही हैं।


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